Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 421
________________ प्रादि पुराण ३०५ अब कट विपाचल पाया सो विमानला पनिका ए भापममान देखता भया-वह गिरिनिका पति उत्तुग पर वह धापहू उत्तुग पर पाप तौ बड़े वंशकू घो पर वह बड़े बांसनिकू धरे, पाप दीर्घता घर पर बहुत दीर्घताकू घरे, पापहू नौरनिरि अलंध्य पर गिरिह औरनिकरि अलंध्य तातें गिरीवकू माप तुल्य देखि प्रसन्न भया ॥६५|| कैसा है गिरी--अपने ऊंचे शिखरनिकरि सोहै है उछलकर दुरि जाय परै हैं निझरने जिनित अर वजासहित विमान निके समूहकरि मानू विनामक अथि पाका प्राश्नय ले हैं ॥६६॥ जो विध्याचल अपनी पूर्व भर पश्चिमकी अणो तिनिकरि समुद्र अवाहिकरि तिष्ठया है मानू दावानलके भयतं समुद्रसू मित्रता कीया चाहे है ।।७।। पर निरन्तर झर हैं नीझरने जाक तलहटोके वृक्षनिके सींचिदेक प्रथि सो मानू इह गिरि असा भाव कहै है-बडे नृपनिक इह योग्य है जो अपने चरणनि लागे तिनि कू पालन करें ।।६८|| पर तटविय तिष्ठते ऊंचे पापारण तिनिसू स्खलित होय उद्दल है जल जाका प्रेसी नदी रूप नारी तिमिकू' मान शब्दसहित नीझरने तिनिकरि हसंसी है ।। ६६ ।। अर दावानल नीचले विस्तो वन तिनिकजसकी सरदीकरि दाहिबेकू असमर्थ तातै भृगुपात कहिए मिरित गरिबके प्रथि शिखरकू चतु है भावार्थ-तलै सरदी जलकी घनी है पर शिखरपरि जल ठहरे नाही तातै शिखरपरि दावानल लाग है सो मानू झपापात बेलेकू चढ़ी है ।।७०।। प्रज्वलित दावानल ताकरि संयुक्त जे गिरि के शिखर तिनिक बनयर जे भील से ज्येष्ठ पापाढके दिनानिमें सुवर्णसारिने लखे हैं ॥७१।। जाके वन मातंग चे हाथी अथवा भीलादिक चांडाल तिनिकरि संयुक्त हैं पर भुजंग कहिए सर्प अथवा विषके भरे दुष्ट जीव तिनिका है संचार जहाँ पर विजाति कहिए पक्षी प्रथवा नीच जाति तेई भए कंटक तिनिकरि पूर्ण हैं ताते कहूंइफ प्रतिकण्टकू धर हैं ॥७२॥ प्रर माते हाथी लिनिका है योग जहाँ पर समुद्र लवणकी है बाहुल्यता जहाँ पर विपत्र कहिए पंखीनिको पांख जहाँ बहुत पड़ी हैं भर पत्र तथा कूपल तिनिकरि बहुत सोहै है ।।७३।। पर कहूंइक फटि गए हैं बीस जिनिफे उदरत गिरे जहाँ तहाँ विम्वरि रहे हैं मुक्ताफल तिनिकरि मान वनलक्ष्मी प्रगट जो दांसनिकी किरण ताकरि वनविणे हसही है ।।७४।। पर इह विध्याचल गुफानिके मुख तिनिकरि झर है नीझरने तिनिके शब्दकरि मानू गाजही है, अपनी महिमाकरि करी है कुलाचलनिसू स्पर्धी जान ।।७५॥

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