Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 420
________________ महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सुंदर है शरीर जिनिका जैसे पश्चिम के हस्ती वननिके स्वामी यति आदरसू भेट ल्याए तिनिकू आप राखता भया १४५३॥ ३०४ सो पृथ्वीका राजा अनेक नदी उलंघता भया, कैसी हैं नदी-यत हो हैं रोमावली जिनिक पर ऊंचे तट तेई हैं नितंब जिनिके, केई नदी पूर्वग्रामिनी केई नदी पश्चिमगामिनी मात्र सह्याचलकी पुत्री ही है, तिनिकू उलंघत्ता भया ।। ५४ ।। विच है भीषण ग्राह जिनिमें ऐसी भीमानामा नदी भर भीमरथी जलचर के समूह तिनिकरि उठ्चा है भंवर जिनि अँसी दारुवेणा घर दारुणा महानदी तितिकू उलघता भया ।। ५५ ।। अर नीरानामा नदी नीरके तीर जे वृक्ष तिनिके शाखाके अग्रभागकरि बाच्छादित है जल जाका श्रर मूलानामा नदी दानिकू उपास है प्रवाह जाका सो अपने प्रवाहकरि मूलतें उतारे हैं तटके वृक्ष जानें || ५६ || यर वारणा नामा नदी, सो कैसी है - निरंतर बहँ हैं जल जायें भर केतवा नामा नदी सदा जलकर भरी बहुरि करीरीनामा नदी सो फँसी है— करी जे हाथी तिनिके दांतनिकरि बिदारे हैं तट जाके इत्यादि महानदी तिनिक्कू नृपनिका उलंघता भया ||१७|| बहुरि प्रहरा लामा नदी विषम जे ग्राह तिनिकर दुषित धातु वह नदी सती कहिए दुराचारिणी नारोही है, दुरावारिणी स्त्री विषम ग्राह जे नीचजन तिनिकरि दूषित है बहुरि मुररा नामा नदी जातिनियम की शहत मानू महासतीही है महासती पंक कहिए कलंक ताकरि रहित है ।। ५६ ।। अर पारा नामा नदी जाके जलके तीर शब्द करें हैं कुरंचि कलईस सारस । श्रर मदनानामा नदी कैसी है मदना - समानस्थल घर नीचेस्थल तिनिजिलकर समान है घर अखंड हैं गति जाकी ।। ५६ ।। श्रर वेणुकानामा नदी मानू इह नदी सह्याचलरुप गजकी मदधारा ही है । यर गोदावरी प्रखंड है प्रवाह जाका अति विस्तारकू घर है ३६० ।। घर करीरवनकरि मंडित है सीरकी भूमि जाकी भैसी तापी नामा नदी तापके संतापले कछुइक उष्णजल धरतीसंती बहै है ।।६१।। घर रम्या नामा नदी ताके तीरके वृक्ष तिनिकी छाया सूते हैं मृगनि के बालक, घर लांगल खातिकानामा नदी कैसी है मातृ पश्चिम दिशाको खाई ही हूँ ||६२ || इत्यादि अनेक नदी तिनिक्कू सेनापति सेनासहित उलंघता भया जहां जहाँ सेनापति गया वहां तहां चनके माते हाथी चक्रवृत्तिका कटक गया चलकू उलंधि विष्याचल जाय सहयाचल पसरी हैं नदीरुप जीभ जानें सो मातृ समुद्रकु हता भया ।। ६३ ।। प्राप्त भया, कैसा है पोबेकू उद्यभि भया है ।। ६४ ।।

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