Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 419
________________ प्रादि पुराण साधन माका कटक पश्चिमदिशाके समुद्र के तीर निवास करता भया ।१६६।। जपसिबु कहिए खारडी समुद्र सो अपने दोऊ तनियिर्ष गजानिके राजाका कटक देरिन भयथकी क्षोभ प्राप्त सोय मानू पाकुल व्याकुल भया !1४०।। सेनाके भोभते समुद्र या तट की उर प्राप्त होय अर या तट की उर निवास करती से नाके भोभते या तटकी उर प्राप्त होय है ।।४१॥ हरितारण निनिकी प्रभाके विस्तारकरि समुद्रका जल अंसा सोहता भया मानू चिरकालत मिवाले नीचे हुता सो ऊरि प्राय गया है ।।४।। अर कहूंइक परागमरिणनिकी किरणनि करि ममुद्रका जल असा सोहता भया मा कटकके क्षोभते ममद्रका हृदय विदारया गया है नाते चले है रुधिरकी छटा ॥४३॥ समाचल पर्वतके तर समुद्रका जल स्पर्श है सो मानूयाकी गोहमैं लोटता संता अपना दुम निवेदन कर है पर वह या धारता संता मार्नु भाईका भाव प्रगट कर है 11४४।। न सधा पर प्रेमा बलका संघट्ट ताकर सो सह्माचल भग्न भए जे वृक्ष तिनिकरी मानू हाथ ऊँचेकरि पुकारही कर है ।।४५।। मह्माचल कटककरि बिदाऱ्या, चलायमान हैं प्रागनी जहाँ सो गुफा के छिद्रनिकरि प्राकुल णन्द करता मानू मृत्युदशाक् प्राप्त होय है, कैसा है पर्वत-सिंहादि प्राणी ने ही हैं. प्रारण जाके । भावार्थ-जो मृत्यु दशालू' प्राप्त होय है ताके प्राण चलायमान होय हैं पर याके प्रारपी चलायमान हैं ।।४६।। चलायमान हैं वृक्ष जाके पर चलायमान हैं प्रासी जहाँ पर शिथिल होय गई है कटिनो जाकी मी पर्वन या भांति चलाबल होता थका काहिब मात्रही अचलनाम धरावता भया. लोकन जानी-कहिलेका प्रचल है ।।४।। प्राणीनि के समूदन कीया है धनका भोग अः तुगनिक मरघट्ट नकार तश्रा कटकके लकनिक पायनिकरि चूरी संनी महाचलकी भूमि क्षणमायमै स्थलके भाव प्राप्त भई ।।४।।। चक्रवर्ती के विजय गज पश्चिमके समुद्र के तटपर्यंत प्रर. मध्यमाचलगिरीपर्यंत अर तु गवर पर्वतपर्यत भ्रमत्ते भए, कमा है तुगबर-ऊ'चे पापागानिकरि संयुक्त है ।।४६|| बहरि कृष्सागिरी उलंचि पर सुमंदरगिरीक उलंघि बहुरि मुकूदगिरिकू उलंघि राजेंद्रके गजराज भूमिमै भ्रमते भए ।।५०।1 नहीं पश्रिमविशिके समीपके हाथी छोटी है पीवा कहिए नारी जिनिकी अर लांब हैं दांत जिनके प्रर मुदर हैं नेत्र जिनके पर मृद है त्वना जिनिकी सचिङ्कण श्याम महापुष्ट ।।५१।। बडा है शरीरका ऊपला भाग जिनिका उत्तुग है अंग जिनिका अर रक्त हैं जीभ होठ तालवे जिनके महामानके धरणहारे अर दीर्घ है पूछ जिनकी अर कमालसमान सुगंध भरे है मद जिनिक ।। ५२ ।। अपने बनविप संतुष्ट अर महाशूग्वोर १८ हैं चरण बिनिके

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