Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 425
________________ शादि पुराण ३७६ भया यरल धारता सकलप्रजाके दुख दारता गुणरुप समुद्रकू पूर्ण करता भया, सब शत्रु करायमान करे ॥१७॥ समुद्र के तीर चाल्या, पश्चिमके तीर पहुंच्या जो द्वार होय सिंधुनी समुद्र में प्रवेश कीया है असा सिंधूदार ताके समीप कटकके डेरे फराए, कैसा है कटक-अपने चित्तसमान निराकुल है चक्रेश्वर महालक्ष्मीनान जा समान अन्य कोऊ विभूतियंत नाही ।।१८।। सिंधुके तटके कन तहां सेनाके डेरे भए फौजके हाथी तिनिके चरिबेकरि पेडमात्र रहिमये ||१६|| तहां मंत्रसहित चकरनकी पूजा करो समस्त रीतिका वेत्ता पुरोहित, पंचपरमेष्ठीकी विधिपूर्वक पूजा करी ।।२०।। पवित्र गंधोदकसू मिश्रित आसिकासहित क्षत देयकरि पवित्र आशीर्वाद दय पुरोहित चक्रीकू प्रानन्द उपजावता भया ।।२१॥ तासमैं धरे हैं देवोपनीत शस्त्र जान पहली रातिप्रमाण रविष प्रारूद्ध होय लवणोदधिकू गायके खोज समान अल्प जानि पृथ्वीका पति लवणोदधिक अवगाहता भया । २२।। उत्कृष्ट है दीप्ति जाकी पैसा प्रभासनामा देव ताहि जीत्या पृथ्वीका पति अपनी प्रभाके समूहकरि सूर्यको प्रभाकू तिरस्कार कर है ।।२३।। जो वीरलक्ष्मो सोई भई मच्छी ताके दशि करिवेकू जालसमान मोतीनिका जाल अर संतान जातिके कल्पवृक्षनिकी माला प्रर मुवणंका जाल ए सब प्रभासदेव भेट करी सो चाधर ग्रही ।।२४11 या भांति पुण्यके उदयतें पृथ्वीपति बड़े देवनिकूजीतता भया तातै बुद्धिमान पुण्यरुप धनका निरंतर उपार्जन करहु, मो पुण्यधन महाप्रबन है ।।२५।। वक्रवर्तीनिमैं आदि प्रथमनको प्रतुल है लक्ष्मी जाके पर नाचने उछलने उनु ग तुरंग तिनिके ग्रनिकार चूर्ण कीए हैं विषमस्थल जान, तुरंगनिके धुरनिकर उठी रेगु ताकरि समुद्रक श्यामता उपजावता संता प्रभासदेवकू जीतिकरि ताथकी गारभूत वस्तु लीन्हो ।।२६ । लक्ष्मौके हीदिवे की लतासमान मदानजातिके कल्पवृक्षनित पुरुषनिकी माला उरवि धारी पर मोतिनिका पर सुवर्णका जाल जुगल ताकारि संयुक्त जैसे कोक बौंद बीदनी परणि भीतरते बाहर निकस तैस लक्ष्मीका ईश लक्ष्मीकू परणकरि समुदत निर्भय निकसता नूतन वरकी शोभाकू धरता अत्यन्त मोहता भया ।।१२।। समुद्रपर्यन्त पूर्वके राजा पर समस्त दक्षिा के राजा वैजयंतद्वारपर्यन्त तिनिक जीतिकरि पश्चिमका समुद्र है सीमा जाकी घेसी पश्चिमदिशा तहांके दिकपालनितुल्य भूपाल तिनित प्रणाम कारायला समस्त देवनिकू कंपायमान करता समस्तदिशाके चक्र अरिचकरहित करता भया । या भांति जीते हैं सकलभूष जाने प्रेमा नपनिका प्रभु पृथ्वी वशि करता भया ।।१२।। इन कथा गौतमस्वामी राजा श्रेणिक सू कहे हैंहै राजन् ! पुण्यके प्रयायत इह जीव भूमंडलकी जीतनहारी चक्रवर्तीकी लक्ष्मी

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