Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 422
________________ ३०६ महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तिव एवं कृतित्व ___ पर इह पहाड नीचे के स्थानक सिनिकरि अर नानाप्रकारको गेसः मादि धातु तिमिरि अर नानाप्रकारके मृगनिके रुप तिनिकरि मान चित्रपटके माकारकू परे है १७६ । पर जाके वनविषं रात्रिसमैं औषधि प्रज्वलित होय है मो मा देवनि । दीपक प्रज्वलित कीए है अन्धकारके हरणहारे १७७।। प्रर का नि बिदारे में गन.. मत हिनिह: स हैं मोती तिनिरि जाका समीपस्थल बिसरे पुष्पनिकी शोभा घर है ।।७८५। मो नपनि का नृग दूरिहीत महागिरिकू देखि परम प्रान्नद प्राप्त भया मान वह गिरि राजराजेंद्र पवनकरि हालते तट के वृक्ष सिनिकरि बुलाये है ७६।। मो चक्रेशर विष्माचलके किरात कहिए भील पर करी कहिए हाथी तिनिक समूहसहित दूरत देखला भया, करो हैं किरात पर कैसा है करी-कालीघटानयान काले घर भील तौ बांस के धनुप घर पर हाग्री धनुषके प्राकार वंश काहिए पीठ ताहि धरै ।।८०॥ ता पर्वतके तटविर्षे नदीका स्त्री चंचल जे मच्छी तेई हैं नेत्र जिनिक प्रा. पछीनिके शब्द तेई है अव्यक्त सुन्दर शब्द जिनके अंसी नदीरूप नारी तितिक नरपति निरखता भया ।।१।। पर विध्याचल के मध्य नर्मदा नदीकू देखता मया सो नर्मदा नदीनिमें बही मानु विध्याचलकी समुद्रपर्यंत कीति विस्तरी है काहू निवारी न जाय ।।२।। तरंगरूप है जलका वेग जाका प्रेसी नर्मदा मानू पृथ्वीकी लांबी चोटीही ह पर विध्याचल पर्वतकी पनाकाही है समस्त पर्वतनिकू जीतै ताकी प्रशंसा प्रगट कराहारी ॥३॥ सो नदी कटकके क्षोभते उठी है पंछीनिकी पंक्ति जाविर्षे सो मानू' पृथ्वीका पति अपने स्थल पाया तात तोरणही बांधे हैं, पग्नीनिके डिबेतै क्षक औसी भासी ॥८४|| पर इह सांचिली नर्मदा है जो राजानिकी रानीनिफू नर्म कहिए क्रीडा ताकी देनहारी ताके मध्य मच्छी केलि कर हैं ।।८५।। ता नमंदाकू उतरिकरि राजेश्वरका कटक विध्याचलकै पले तट जाय पाँच्या घरकी देहलीकी बुद्धिकरि विंध्याचलकू उलध्या पर नर्मदाके पार भए, कैसी है नर्मदा-कटकके क्षोभत उडी है पंखीनिकी पंक्ति जाविर्ष ॥६६।। अर विध्याचल नर्मदाकै दक्षिणदिशिभी देख्या पर उत्तर दिशिभी देख्या मान विध्याचलने दोऊदिशानिषं अपना रूप दोयप्रकार कीयां है दोजही दिशातिमै जाका छेह नाही ।।८७॥ चक्रीका कटक नर्मदाकी चौगिरद विध्याबलकू बेटिकरि निवास करता भया मानू इह कटक दूजा बिध्याचलही है ।।८।। वह कटक पर बिध्याचल परस्पर भेद न धारते भए, कटकमैं तो गज पर गिरी में गेडोपल कहिए ऊंचे स्थानक पर कटक मैं अश्व पर पर्वत मैं अश्व

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