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विवेक विलास
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रही वेलि विस्तरि जहां, शुद्धातम अनुभूति । ता समान नहि सुध लता, केवल भाव विभूति ॥६४।। परम सुभाव पियूष फल, निज रस पूरण जेहि । तिन से नाहि सुधा फला, फलि नु रहे अति तेहि ।।६।। सदा प्रफूलित भाव से, फूलन और सुगन्ध । फूलि रहे महकै महा, राजै राव अवन्ध ॥६६!! अल वेलि फल फूल ए, तिन करि वन अति रम्य । जहां न गम्य विभाव की, वस्तु न एक अरम्य ।।६७१५ माया वेलि न है तहां, जहां न विकलप जाल । क्रोधादिक कंटिक नहीं, निज वन महा रसाल ।।६८।। नाहि शुभाशुभ कर्म से, विष तरु विश्व मझारि। तिन को लेस न है जहां, दुख फल नांहि लगार॥६६।। दुख फल से नहिं विष फला, देहि जगत को पीर। मानफूलि से फूल बिष, तहां न जानौं वीर ॥७०।। सुख सरवर सौ सर जहां, भरचौ सहज रस नीर । तरवर सघन स्वभाव से, तहां विराज धीर 11७१।। केवल कला कलोलनी, बहै निरन्तर शुद्ध । क्रीडा कर महा सुखी, राजे राजा बुध ।।७२।। अथग स्वभाव पयोनिधी, स्वच्छ महा गम्भीर ।। तिसौ न सागर स्त्रीर है, रमै गुरगांबुधि वीर ।।७३।। अति उल्हास विलास मय, आत्तम सक्ति प्रकास । ता सम लीला और नहि, यह भास जिनदास ॥७४।। अचल उच्च थिर भाव सों, क्रीड़ा गिर नहिं कोइ । क्रीड़ा करै कला निधी, जगत सिरोमरिण सोइ ।।७६१ ज्ञान चेतना परणती, निज सक्ती बहुनाम । तासौं कमला बुध कहे और न कमला नाम ।।७७।।