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विवेक विलास
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नित्य निरंतर निर्मला, निज परराति रस धार | वहै अखंडित धार जो, ता सम नदी न सार ।।४७८।। केवल कला कलोलनी, सदा सहज रस पूर । रमैं जा विर्ष राग हर, निज रसिया भ्रम दूर ।। ४७६।। नहि तरंगनि रंग जसी, उठे तरंग अपार । नहीं अंत तटिनि तनौं, यह तटिनी अविकार ।।४८०।। तट अनेकता एकत्ता, ए द्वय अदभुत रूप । भरी शांत रस नीर तें, नदी अनूप सिवरूप ।।४८१।। पंकन पाप समांन को, या मैं पंक न लेस । हरै संताप सह, सरिता राहत कलेस ।।४६२।। रंक भाव जे झोंगरा, नांहि नदी मैं कोय । डांसर मास्टर विकलपा तिनको नाम न होय ।।४८३।। जड़ता भाव जु जलचरा, ते न कदाचित जानि । जल देवत जग भावजे, कबहु तहां न मानि ।।४८४।। मगरम छ नहि मोह सौं, महा पाप को धाम । सो न पाइए ता विष, रमैं निजातम राम ।।४८५।। मिथ्या मारग पक्ष धर, तेहि कुपक्षी क्रूर । तिनते रहित महानदी, सर्व दोष तें दूर ।।४८६।। है निकलंक निराकुला, अमृत रूप अवाध । निज गंगा तातौं कहैं, निज रस रसिया साध ।।४८७।। कर्म कलंक समान को, और न होय कलक । कर्म भर्म हहैं मदी, सेवे साधु निसंक 1॥४८८|| कंकर भाव कठोर जे. कृमि कुभावना रूप । ते न कदे धार नदी, अमृत रूप अनूप ।।४८६।। लोलुपता मय मीन जे, कूरम करकस भाव । दुरबादी दादर भया, सरिता मैं न लखाव ॥४६०।।