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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कालचक्र ते मोहि उबारे,
अपनी वासदेहु गुण भारे । तो विनु काल न किहिन जीते,
कालनाथ तु काल अतीते ॥२७७।। १ अणु खंधा नहि तो मैं कोऊ,
चेतन तू जु अमूरति होऊ ॥२७८।। अणु द्रव्यं खंधा पर्याया,
फरसादिक गुण वीस बताया । ते गुराग मो तै टारि जु स्वामी,
निज गुरग दें व्यारचौं अभिरामी ॥२७६।। केवलदर्शन केवलज्ञाना,
केवलवीरज साँस्य प्रधाना । २ इनहि आदि द अमित जुदै हो.
अपनों करि अपुन पुर लैहो ।।२८०।। सणु कालागु अर पुगलाणु',
दुहु को ज्ञायक तू जु प्रमाणु । मिलन शक्ति नै रहित जु एका,
दूजी मिलत जु शक्ति अनेका ।।२८१।। अमर हि शिव तोते हो,
अमरासुर नर तुव मुख जोवे । देव सकल कहिवे के अमरा,
अमर सही तू कवहू न मरा ॥२८२।। १ इस छन्द की संख्या का चरण १ पंक्ति का ही है । २ प्रनि में पुन: संख्या १ मे शुरू की गई है; पर हमने इन छन्दों
की सख्या लगातार क्रमाः ही रखी है, जबकि कई स्थलों पर संस्या में ऐसा अवरोध पाया है गया । लगता है प्रतिलिपकार ने पुनः हमको सुधारा नहीं है।