Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 378
________________ २६२ महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्त्र र जबरि मोहि नहो, तुमको चितावान देख कर मरे व्याकुल भाग गया है। ता गवनंजय ने कहा-हे मित्र ! यह वार्ता काहू सो कनी नाहीं। परन्तु हु। म स रहस्य के भाजन हो तोमु अरार नाहीं । यह बात कहते परम मा उपरी है । तत्र प्रहस्त करल भये गा तिहार वित्त विर्ष होय सो कलो, जी तुम आज्ञा करो सो बात और कोई न जानेगा, जसे ताते लोहे पर पड़ी जनकी बूद विनाय जाय, प्रकट न दोस्र, तरी मोहि कहीं बान प्रकट न होय । तव पनगार बोले-ह भित्र ! सुनो-मैं कदापि अंजना-सुन्दरीसा प्रीति न करा गो गावं मेरा मन प्रति व्याकुल है, मेरी ऋता देखो ऐते वर्ष परगणे भार सो अब तक वियोग रह्या, निाकारण मप्रीति भई, सदा बस शोककी गरी रही । अपमान करते रहे पर चलते समय द्वार की विरह रूप दाहसों । गया है मुर रूप कगल जाका, सर्व लावण्य संपदा रहित मैन देखी, अब ता. ही नत्र गोल कागल समान मेरे हृदयको वागावत् भेर्दै है, ता ऐसा गायकर जारि ग बासों मिलाग हाच । है सजन ! जो मिला न हो यगा ना हम दोनों का ही मरमा होमगा । तव प्रहस्त क्षगाएक विचारकार बोले-तुम माता पितामों प्राज्ञा मांग शत्रु के जीत ते को निकसे ही, ताल पीछे चलना उचित नाहीं पर अब तक कदापि प्रजना-सादी याद करी नाहीं पर यहां बुलायें तीनमा उपजे है तातं मोप्य चलना र गोप्य ही आवना, वहां रहना नाहीं । उनका अवलोकन कर सुख सभापता वारि यानंद का शीन ही भाबना । तत्र अापका वित्त निश्चल होगा । परम उत्तमहरूप चलना, शत्रु के जीनने का निश्चय किया गो यही उपाय है। राय मुद्गर नामा सेनापति को कटक रक्षा सोपरि मेरुकी बंदनाका मिसवारि प्रहस्त मित्र सहित गुप्त ही सुगंधादि सामग्री लय वारि अाकाशके मागंसों चाले । सूर्य भी अस्त होप गया अर सांगा प्रकाश भी गया, निशा प्रगट भई अजनासुन्दरी के महल पर जाय पहुंचे । पनन शुमार तो बाहिर खड़े रहे, प्रहमन खवर देवकों गीतर गए, दीप पा मंद प्रकाश था, अंगना कहती भई कौन है ? वसंतमाला निकर ही सोनी हुनी, मा जगाई, वह अब श्रातीवि निपुण उठकर अजनाका भय निवाररग परत भई । प्रहम्तने नमस्कारपारि जव पवनंजय के प्रागमनका वृत्तान्त वह्या तब तुन्दरी प्राणनाथ का रामागम स्वप्न नमान जान्या, प्रहस्त की गदर वाणी कार कहती भई हे प्रहस्त ! मैं पुण्य हीन' पतिकी कृपायरि वजित, गर ऐसा हो पाप कर्मका उदय आया, तू हमसों कहा हसं हैं, पतिसा जिसका निरादर होय वाकी कान अयशा न करें ? मैं अभागिनी दुम्न अवस्थाकों प्राप्त भई, वहांत सुख अवस्था हाथ । तब प्रहस्त ने हाथ जोड़ नमरकारकारि

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