Book Title: Mahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Sohanlal Sogani Jaipur

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Page 390
________________ २७४ महाकवि दौलतराम कासलीवाल- व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धारक साधु देखे । तिनको नमस्कार कर वे राजा जिननाथ का जो चैत्यालय तहां गए वा समय पहाड़निके शिखर विर्षे अथवा रमणीक वन विषं अथवा नदी के तट विषे प्रथा नगर ग्रामदिक विषै जिन मंदिर हुते तहां नमस्कार करि एक समुद्र समान गम्भीर मुनिनके गुरु सत्यकेतु आचार्य तिनके निकट गए, नमस्कार कर महाशांत रस के भरे प्राचार्य से वीनती करते भए - हे नाथ ! हमको संसार समुद्र पार उतार सब भूमि कही तुमको रक्षार हारी भगवती दीक्षा है सो अंगीकार करहु मुनि की यह आज्ञा पाय ये गरम हर्ष प्राप्त भए । राजा विदग्धविजय मेरुर संग्रामलोलुप, श्रीनागदमन, धीर शत्रुदमन र विनोद कंटक, सत्यकठोर, प्रियवर्धन इत्यादि निर्भय होते भए, तिनका गज तुरंग रयादि सकल साज सेवक लोकनि ने जाय करि उनके पुत्रादिकनिकू सोप्या, तब ने बहुत वित्तावान भए । बहुरि समझकर नाना प्रकार के नियम धारते भए | fun सम्यग्दर्शन कू अंगीकार कर संतोष प्राप्त भए, कैयक निर्मल जिनेश्वरदेव का धर्म श्रवणकरि पाप परान्मुख भए । बहुत सामंत राम लक्ष्मी वार्ता सुन साधु भए, कैंपक श्रावक के श्रणुव्रत धारते भए । बहुत रानी प्रायिका भई, बहुत श्राविका भई, कैथक सुभट राम का सर्व वृत्तांत भरत दशरथ पर जाकर कहते भए सो सुनकर दशरथ भर भरत कयक खे प्राप्त भए । श्रथानंतर राजा दशरथ भरलको राज्याभिषेक कर, कछुयक जो राम के वियोग कर व्याकुल भया हुता हृदय सो समता लाव, विलाप करता जो अंतःपुर ताहि प्रतिबोधि नगर बनकू गए। सर्वभूतहित स्वामी को प्रणामरि बहुत नृर्णन सहित जिनदीक्षा श्रादरी । एकाकी बिहारी जिनकल्पी भए । परम शुक्लध्यान की है अभिलाषा जिनके तथापि पुत्र के शोक कर कहूँ कछु इक कलुषला उपज आ सो एक दिन से विचक्षरण विचारते भए कि संसार के दुःख का मूल जगतका स्नेह हैं, इसे विकार हो ! या करि कर्म बंधे हैं। मैं अनन्त जन्म धरे तिनविषै गर्भ - जन्म के अनेक माता-पिता भाई पुत्र कहां गए ? अनेक बार में देवलोकके भोग भोगे । पर अनेक बार नरक के दुःख भोगे, तिर्वच गति वि मेरा शरीर अनेक बार इन जीवनि में भख्या, इनका मैं भख्या नाना रूप मे योनियाँ तिन विष में बहुत दुःख भोगे । घर बहुतबार रूदनके शब्द सुने । घर बहुत बार वीरगाबांसुरी आदि वर्शदत्रों के नाद सुने, गोतसुने, नृत्य देखे ratha मनोहर प्रप्सरानिके भोग भोगे । अनेक बार मेरा शरीर नरक विष

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