________________
२५६
महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देखवेत परम दुःख करती भई । रात्रि में भी निद्रा न लेय, निरंतर प्रथुपात ही झरा करे, शरीर मलिन होय गया, पतिसों अति स्नेह, धनी का नाम प्रति सुहावै, पवन जावं सो भी अति प्रिय लाग, पति का रूप तो विवाह की वेदी में अवलोकन किया हुता ताका मन में ध्यान करबो कर भर निश्चल लोचन सर्व चेष्टा रहित बैठी रहै | अंतरंग ध्यान में पति का रूप निरूपण करि बाह्य भी दर्शन किया चाहै सो न होय । तदि शोककरि बैठी रहै, चित्रपटविषं पति का चित्राम् लिखने का मन कर, सहिम र कार कानगर पई, दुर्बल होय गया है समस्त अंग जाका, होले होय कर गिर पड़े हैं प्राभूपण जाके, दीर्घ उष्ण जे उच्छवासनिकरि मुरमाय गए हैं कपोल जाके, अंग में वस्त्र के भी भार करि खेद को घरती संतो, अपने अशुभ कर्मों को निंदती, माता-पितानि को बारंबार याद करती संती, शून्य भया है हृदय जाका, दुःख कर क्षीण शरीर, मूछी माय जाय, चेष्टा रहित होय जाय, अनुपात करि रुक गया है कठ जाका, दुःख कर निकसे हैं वचन जाक, विह्वल भई संती देव कहिए वोंपाजित कर्म ताहि उलाहना देय चन्द्रमा को किरण हू करि जाको प्रति दाह उपज पर मंदिर विर्ष ममन करती मूर्छा साय गिर पई अर विकल्प की मारी ऐसा वित्तार कर अपने मन ही में पति सों बतलावं कि हे नाथ ! तिहारे मनोज्ञ अग मेरे हृदय में निरंतर तिष्ठ हैं, मोहि आताप क्यों करे हैं घर में प्रापका कछु अपराध नहीं किया, निःकारण मेरे पर कोप क्यों करो, अब प्रसन्न होवो, मैं तिहारी भक्त हूँ, मेरे चित्त के विषाद को हरी। जैसे अंतरंग दर्शन देवो हो, तर बहिरंग देवो । यह मैं हाथ जोड़ विनती करू हूँ। जैसे मूर्य बिना दिन की शोभा नाही पर चन्द्रमा बिना रात्रि की शोभा नाही प्रा. दया क्षमा शील संतोषादि गुण बिना विद्या शोभे नाही, तसे लिहारी कृपा बिना मेरी शोमा नाही, या भांति चित्तविष बस जो पतिताहि उलाहना देय | पर बड़े मोतियों समान नेत्रनित श्रासुवान की बूद भारे, महा कोमल सेज पर अनेक सामग्री सखीजन करै परन्तु याहि कह न सुहाव, वक्रारूद्ध समान मन में उपज्या है वियोग में भ्रम जाकों, स्नानादि संस्कार रहित कभी भी केश समार गूथे नाही. केण भी रूखे पड़ गये, सर्व त्रिया में जड़ मानों गृथ्वी का ही रूप होय रहीं है । पर निरंतर प्रांसुवनि के प्रवाह मानों जलरूप ही होय रही है । हृदय के दाह के योगतै मानों अग्निरूप ही होय रही है। अर निश्चलचित्त के योगत मानों वायुरूप ही होय रही है अर शुन्यता के योगतै मानों मगनम ही होय रही है । मोह के योगत प्राच्छादित होय रह्या है जान जाका, भूमि परार दिया हैं सर्व अंग जाने, बैठ न सके पर तिष्ट तो उठ न सके अर उठ तो देही को थाम न सके सो सखीजन का हाथ पकड़ि विहार कर सो पग झिग