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महाकवि दौलतराम कासलोदाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कुपख धारका कुसवदा. जेहि कुपक्षी ऋर । ते नाव साल की हैं, या भान ते दूर १५३६।। हिंसक कुटिल कुभाव जे, ते सिंघादिक जीव । सदा पास ताटनी तटें, विवर महा कुजीव ।।५४०।। सर्पन कंदादि से, तिनको तहां निवास । सदा कुवस्तुनि सौं भरी, यह तरंगणि पास ।।५४१।। मल नहि राग विरोध से, आसा अतिमल पुर । बिमल भाव हंसा महा, ते तटिनी से दूर ।।५४२।। आसा तटि मुनिवर महा, रहैं न कवहू धीर । अति अपराधी पारधी, बिचरें दुर्जन कीर ।।५४३!! वैतरणी हुँ न या समा, आसा नदी असार । उत्तर कोइक साधवा, महानती अरणगार || ५४४।। अध्यातम विद्या जिसी, और न उत्तम नाव । पार उत्तारं सो सही, वायु विराग प्रभाब ।।५४५।। बैठन हारे नाव के, सम्यक दृष्टि धीर । तिन से तेरू और नहिं, ते उतरें भव नीर ।।५४६।। प्रासा मैं बूडे घनें, डैगें जु अनंत । पार उतारै मुनिबरा, कोइक संजमवंत ॥५४७।। गुण नहि दरसन ज्ञान से, तिन करि जकरी नाव । रहित परिग्रह भार तें, उतरै गरु प्रभाव ॥५४८।। तिरि बासा मुनिवर महा, त्यागि जगत जंजाल । वसं निराकुल होय कं, निजपुर में ततकाल ।।५४६ ।। निजपुर सौ नहि कोइ पुर, जहां काल भय नांहि । गुण अनंत निज पुर विषे, सुख अनंत जा मांहि ।।५५०।। इह प्रासा कल्लोननी, संकट रूप सिवाल । कंटिक विर्ष कषाय से, वहुत कलपना जाल ||५५१।।