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विवेक विलास
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रहित शुभाशुभ शुद्ध सर, भाव प्रबुद्ध स्वरूप । महा मोह ममरन नहीं, तहां न एक चिरून II काइ काम किरोध मय, सर को फरसि सकेन । सर्व विभाव विकारमय, वितरः एक रहै न ॥५७६।। जाचक भाव समान नहि, नन भाव जग माहि । तेइ झींगर जानिय, तिनको नाम हु नाहि ।।५७७।। दादर वृथा विवाद जे, मछी बकल स्वभाव । कदरज भाव जु काछिवा, सर मैं नाहि लखाव ।।५७।। कीट कलपना जाल जे, डासर दुष्ट कुभाव । मांछर मछर भाव जे, तिनकौं तहां प्रभाव ।।५७६।। नानाविध वर्णादिका, जड़ता भाव अनेक । से जलचर नहि ता विष, भात्र असुद्ध न एक ।।५८०।। विषं विकार बिनोदमय, विष व्रक्षन सर तीर । विष वेलिन विभ्रांतता, भाव विषमता वीर ।।५८१।। मायाजाल न है जहां, ममता मोह सुरूप । पाप वासना रहित सर, श्राप स्वरूप अरूप ।।५८२।। जहां न भय को नाम है, अभै सरोवर एह । अभं नगर के निकट ही, परमानन्द अछेत् ।।५८३।। दुराचार दुरभाव जे, दुरबिकलप दुखदाय । दुरित रूप ते दानबा, तहां धरै नहिं पाय ११५८४।। असु प्रारणनि को नाम है, हरै प्राण पर जेहि । असुर असुचि अति हिंसका, भाव न सर मैं तेहि ।।५८५।। विर्ष रागरत राखि सा, रसनां लंपट भाव । रमणीरत रजनीचरा, तिनको तहा अभाव ।।५८६।। यंद्रो भोगमयी भवा, भात्र भूत भ्रम रूप । ते न कदे सरवर लखें, जहां छाह नहि धूप ।।५८७।।