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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नांहि कुपक्षी कुसवदा, विष वृक्षन विषयादि । नहि कंटिक क्रोधादिका, नहि निसिचर मदनादि ॥६६६॥
हैं अतता एकता, ए द्वय तट भोग भुजंग नहीं जहां, श्रातम सुख मलिन भाव मछली नहीं, भेक न भ्रांति स्वरूप । जहां कर्म कूरम नहीं वस्तु न एक विरूप ||६८८ || कालिम कीट नहीं जहां, नहीं काल कौ जोर । अभै नगर के निकट हैं, जहां न कबहू सोर ||६६६ ||
रमणीक ।
तहकीक ।। ६८७||
नहि दुर्जनता भाव मय, डांसर मांदर मूर क्षुद्र भाव भोंगर नहीं, वापी सब दुख दूर ||६६०|| दंभ भाव हि जहां कि । सारिस दरसन ज्ञान जुग, केलि करें विनु सोक ।। ६६१ ।। कागन भाव कलंक मय, राग रोग नहि होय शुद्ध स्वभाव मइ इहै, नांहि शुभाशुभ दोय | १६६२ ॥ ३
sa अध्यातम वावरी, तामै करै सनान । सो भव दाह निवारिक, पाव पद निरवान ||६६३ ||
॥ इति संपूर्ण ॥
दोहा
बसे बुद्धि के पार जो, हरं कुबुद्धि कुभाव । वीतराग सरवज्ञ जो, तीन भुवन को राव ।। ६६४ ।। प्रभू ताहि प्रमोद करि, प्रण मैं जाहि सुरेस । नमें नाग नर सुर असुर, विद्याधर राजेस ।। ६६५।।
विषय वापी वर्णन
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