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अध्यात्म बारहखड़ी .
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नाम त कौं, करै जु पातम सेव । श्रेयातम जगदेव जौं, देव देव जिन देव ।।३५।। अतुल गुणातम गुरगमई, पर गुण रहति जु देव । निरगुण कहिए जो प्रभू, गुण अनंत निज वेव ।। ३६।। करौं अराधन नाथ की, जो अनंत द्युतिरूप । प्रगरिंगत शशि सूरिज विभा, नख सम नांहि अनूप ।।३७।। गुण पर्यय स्वाभाव भो, सर्व विभाव वित्तीत । अनत कला असम जु प्रभा, जगनाथो जगजीत ।।३।। आप एक लौ सर्वधर, एकानेक स्वरूप । अनेकांत पागम प्रगट, अनुभव रसको कृप ।। ६ ।। वहिरंगा कमला तजे, अमला कमला पासि । सो कमलापति देव है, काटे जग की पासि ।।४०।। कमला नाम न बोर है, कमला निज अनुभूति । हुदै कमल राजे सदा, प्रातम सक्ति प्रभूति ।।४।। कमला निज अनुभूति है, वस जु जिनके माहि । चरण कमल तजि जाय नहि, रहै सदा प्रभु पांहि ॥४२।। नांहि प्रदेश जु भिन्न हैं, कमला प्रर प्रभूके जु । द्रव्यर परगति भेद नहि, एक रूप अधिके जु ।।४।। अल तरंग दुविधा नहीं, भानु रश्मि नहि भेद । तैसें कमला हरि विष, श्रुति गावै जुअभेद ।।४४।। वह कमलाधर जिन प्रभू, बस सदा मन मांहि । मैं मूरख अलगौ रहूँ मो सम मूरिष नाहि ।।४५।। वाही के परसाद ते, खोलू मिथ्या ग्रंथि । तब वास्यौं बिछुरू' नही, घ्याऊ व निरम्र थि ॥४६॥ रहूं सदा मै हरि कनें, तजी न हरि को संग । जिन रंगै रत्ता रहूं, जिके द्विविधा संग ।। ४७।।