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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अष्टनि के से पर अटताली,
ते सव भेव हरे भ्रमजाली । तू जिन कर्म हरो हर अवसा,
वशकीये ते त्रिभुवन स्ववशा ।।१६५॥ जीव समास जु हैं गुन्नीसा,
पूर्णोतर गुनिये अढ़तीसा । सवको रक्षक तू जु जिनेश्वर,
सब भेदनि ते रहित शिवेश्वर ।।१६६॥ अठतीसाँ पनि एक अधिक हूं.
कल परकल पातीत भेद द्वै । सब ऊरध लोकहि के ऊपरि,
तेरो वास जु है सवक सिरि ॥१६७।। नाहि वासना तो मै कोऊ,
वासदेन हारौ इक होऊ 1 अठतालीसौं काव्य जु तेरी,
भक्तामर की ऋद्धि घनेरी ॥१६७।। ते निवसौ मेरे घटि देवा,
मानतुग दुख दूरि करेवा । एक ऊन अडतालीसाजे,
धातिक प्रति अति मलिन महाजे ॥१६८।। ते सव नासहि तेरे भक्ता,
तू सौ अर अठताल विमुक्ता। चौवीसौं माता मरताता,
ए अठताल हो थकी ख्याता ।।१६६॥