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विवेक बिलास
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एक न राखौ मोह को, मन तन कौ परसंग। निज स्वभाव सना कर, करहु करम दल भंग ॥६१०।।
राज करहु निजपुर विष, अटल अचल सुख रूप । जहां न बस है मोह को, नही काल सौ भूप ।१९११।। राज बिगारा दूर करि, राज सुधारा लेहु । यह उपाय करि राय तू, ममता भाव हरेहु 11६१२।। काया काची है गटी, जहां काल को जोर । रहनौं जामै मोह बसि, बली काम से चोर ॥६१३।। तजि काया गढ़ सर्व ही, सूषिम और सथूल । करि निवास निजपुर विषं, यहै बात सुख मूल ।।६१४|| सुनी सुगुर की वारता, उर धारी भबि जीव । बुद्धि प्रद्रोध प्रभाव करि, त्यागे भाव अजीब 11९१५॥ कियौ राज कटिक रहित, फेरि न विनर्स राज । इहै वात जे उर धरै, करें निजातम काज ।।६१६।। गुर प्राज्ञा धार नही, तजै न कुबुद्धि कुभाव । ते अभव्य जन जांनिये, तथा दूर भवि राव ।।१७।। बहिरातमता त्यागि के, अंतरातमा होय । सो परमातम पद ल हैं, इह निश्चं अबलोय ॥६१८॥1 वहिरातम कौ वर्णना, जोहि सुनें धरि कान । सो बहिरातमता तजे, पावै प्रातम ज्ञान ॥१६॥ निज लखिमी लखियां विना, है वहिरातम वीर । दौसाति निज अनुभूति लखि, तिरं भवोदधि नोर ।।२०।। त्याग जोगि पर वस्तु जे, हेय कहावं तेहि । लेन जोगि निज भाव जे, उपादेय हैं एहि ॥२१॥