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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रहित ज्ञान धन जड़ता, जे मिथ्या परिणाम । तिन से संख न और को, भव जल तिनको धाम ||३४५।।
संखोल्यो सागर पहै, महा संख अति भंग । उतरै पार पुनीत नर, जे निसंक नहि कंष ।।३४६।।
कृपरण ति सम लोक मैं, कौड़ी और न कोय । भरयौं भवोदधि तिन थकी, नहीं रम्य है सोय ।।३४७।। कौडधौ सागर है सही, नहीं कौड़ी को एह । गुण माणिक के पारखी, तजें या थकी नेह ।।३४८।। सीपन द्विविध ब्रती है द्विदिपा की स्वनि। सीपोल्यो सागर यहै, रमि बाजे गिन जांनि ।।३४६ ।। कागन कोइ कुभाव से, है तिनको हयां केलि । बुग नहि ठग भावानि से, तिनकी रेलि जु पेलि ।।३५० ।। जड़ स्वभाव जडतामई, वरजित सम्यक ज्ञान । नहि तिनसे जल देवता, रोक पथ निरवान ।। ३ ५.१।। रागादिक अति राक्षसी, दुष्ट भाव दैत्यादि । पाप स्वरूप पिसाच वहु, वितर है विषयादि ।। ३५२।। ते संसार समुद्र में, बसें सदा विकराल । कसे प्रोहण चलि सकें, बहै वाय अंसराल ॥३५३।। बाय न मिथ्या वायसी, जा करि जग उड़ि जाय । गिर नहीं थिरता भाव से, जे निश्चल उहाय ॥३५४।। नांहि कुगर्वत लोक मैं, कठिन भाव से कोय । कर्कस कटु कषाय घर, निष्टुर निर घृण होय ॥३५५।। तें भवसागर के विडं, नाव विहारक वीर । अवरहु विघन वहीत हैं, यह सागर गंभीर ।। ३५६।।