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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उज्जल निर्मल भाव से, परमहंस नहि और । इहै ज्ञानगिर धर्मगिर है हंसनि की ठौर ॥३३॥
निज वारा कल्लोलनी, व अखंडित धार ।
ता सम एतदिनि और नहि. जाकी पार न बार ।। ३६४ ।।
नाहि ॥ ३६५॥
सो उतरे या गिर की सुख सागर के मांहि । सदा समावै सासतो, यामैं सं गिर परि समरस सरचरा, गिर निज पुर पासि । सदा ज्ञान अनुभुतिमय, वेलि रही परकासि ॥ ३६६ ॥
सदा प्रफुल्लित भावमय फूल रहे प्रति फूलि ।
महा सुधारस भावफल, फले हरे भ्रम भूलि ॥। ३६७ ।।
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को अर्गानिका मागनी, लोभ मोह मय आणि देखत ही भावाला, तुरत जाहि तब भागि ३६८।। ज्ञानानि ध्यानागनी, घूम रहित परकास । तेज प्रगति प्रज्वलित है, जा करि भर्म न भास ॥ ३६६ ॥ घूम न कर्म कलंकसौ, ताकी तहां न नाम । नही वाय चल भाव मय, यह परवत निज धाम दुष्ट कठोर कुभावजे पाहण हि वखाए । यह कीड़ा गिर थिर गिरा, रमणाचल कहवाय ॥। ४०१ । १ या गिर मैं नहि पाहणा, कंकर कोइ न होय । क्षुद्र रंक भावानि से, कंकर और न जाए ।।४०२ ।।
व व परि सुसंगता, तिसी न सुन्दर काय | है रतननि को पर्वता पहि मां सोय ||४०३॥ प्रति हि कृपणता नान्हपन, जाचकता जग मांहि । . तिसी न नांन्ही कांकरी, ते या गिर परि नाहि ||४०४ ।। सठ पशु नहि कामीनि से. ते गिर परी न लगार । दुष्ट पसु न पिसुनानी से, तिनको नहि संचार ||४०५ ||