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विवेक विलास
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पसू न कहावें पापिया, गहै दोष पर जेहि । पिसुन न पेखें पर्वता, धिरता रूपक देहि ।।४०६।। गिर परि हिसा नाम नहि, नहि हिंसा परिणाम । यह पहार निज धाम है, रमैं प्रातमा राम || ४०७॥ खल नर खल तिर खल असुर, लखि न सके गिरराज । दिव्य भाव निज तेहि सुर, तिनके तहां समाज ।।४०८।। फुलि रहे भावा कमल, अमल अलेप स्वरूप । समरस सरवर के विर्ष, थिर गिर परि सद्प ।।४०६ ।। निज रस बेदक भावजे, तेहि भमर भ्रम दूरि । ते रमणाचल उपरै, रमैं सदा भूरपूरि ॥४१०|| ग्रातम अनुभव केलिसी, और न कोइल कोइ । सो गिर ऊपरि है धनी, अति सुखदायक सोय ।।४११।। माया जाल न है तहां, जहां न विकलप जाल । विष तरु अघ कर्मन जा, पर्वत वहुत विसाल ।।४१२।। विप वेलि न ममता तहां, समता अतुल अपार । जे विषफल दुख दोष भय, गिर परि ते न लगार ।४१३।। नहीं काल अजगर जहां, और न अबकर कोइ । है मुखकर इह पर्वता, निजपुर निकट हि होय ।।४१४।। नहि कटिक क्रोधादिका, हि मन मरकाट केलि । मोर प्रमोद स्वभाव से, तिन की रेल जु पेलि ।।४१५।। गुफा ज्ञान मय ध्यान मय, तिन करि सोभित एह । सिखर सुधा भावानि से, धारं अनल अछेह ।।४१६।। या पर्वत की तलहटी, शुभाचार शुभ रूप । अशुभ दैत्य दूर रहैं, थिर गिर अमल अनूप ।।४१७।। महा मुनिंद्र गिरंद्र परि. राज शांत स्वरूप । रहै राज हंसा सदा, प्रातम राम अनूप ।।४१८।।