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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नाव न मुनि प्रति सारिखी, विरकत भाव निधान । मंडित मूलोत्तर गुणनि, पहुँचावै निरबारग ।। ३७०।। नाम नांव ही को महा, भाषे लोक जिहाज । जति व्रत रूप जिहाज मैं, राजै श्री मुनिराज ।।३७१।। न्द्रिद्ररण दूषण ग्रहण से, ते न नाव के कोय । इह अछिद्र नौका महा, भव जल तारक होय ।।३७२।। संग रहित संजम मई, जब बार्ज सुध वाय । जति प्रतरूप जिहाज तव, भवसागर तिरिजाय ।। १७३।। खेलिया न गुरु समः, "जनके कारण । अाप तरै तारे रखी, रहित विषाद विवाद ।।३७४।। श्री भगवान सुजान से, और न सारथवाह । भवसागर भय रूप में, तेइ करें निबाह ।।३७५।। नित्य स्वरूप विलास सौं, वरदवान नहि वीर । निज चेतन धन ले मुनि, पहुँचे निजपुर धीर ॥३७६!! धर्म नाव गुर खेवटया, सारथवाह जु देव । यह वरणन व्यवहार है, निश्चै प्रातम एव ।। ३७७।। प्रातम भाव अनूप जो, ता सम और न दीप ! भव सागर के पार है, दिपं सदा दैदीप ॥३७८।। ताहि कहैं निरबांन अर, मोक्ष हु कहै मुनिंद । कहै अभैपुर भावपुर, सिवपुर कहैं अतींद ।।३७६।। ए निजपुर के नाम सब, फवै जाहि सब वोय । नग्र निरूपम निर्मला, है निरलेप अछोय ।।३८०।। बस दीप सब के सिर, जहां न जम को जोर। . चोर न जोर न जार कौं, होय न कबहू सोर ।।३८१॥ दौलति रूप अनूप सो, दीप दोष तें दूर । संपति ज्ञान विभूति जो, हैं तात भरपूर ॥३८२।।