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विवेक विलास
और न भाच प्रपंच करू, केवल चेतन भाव । यह निज सागर वर्णनां, उर धारै मुनि राव ।।३०६।।
॥ इति भाव समुद्र वर्णनं ॥
दोहा
भव समुद्र वर्णन
या संसार रामार में, श्री भगवान प्रभार। तेहि उधार घुग निधी, करें भवोदधि पार ||३१०।। नहि संसार समुद्र सौं, सागर और विरूप । यह विष सागर दुख मइ, महा भयंकर रूप ॥३११।। भोग कामना कालपना, भर्म वासना तेह । अति कुवासना सौं भरचौ, भव सागर है एह ।।३१२।। दुख सागर सद्रप इह, है अत्यंत असार । क्षार महा विष जलमइ, ते भब पारावार ॥३१३।। विर्ष सारिखो जग विषै, और न है विष नीर । भव भव उपजावें मरण, देय सदा दुःख पीर ।।३१४।। भाव कालिमा सारिखौ, कीच न जा में कोय । कोच कालिमा सौं भरचो, भव सागर है सोय ॥३१५।। मल नहि मोह ममत्व सौं, यह मल सागर पूर । छल सागर छल सौं भरयो, खल सागर सुख दूर।।३१६।। भोग भावना अति तृषा, उपजावै संताप । विष नीर सौं नहिं बुझे, विरथा विर्ष विलाप ॥३१७।।
आतम अनुभव सारिखौ, और सुधारस नांहि । सो अति दुर्लभ है भया, भव सागर के मांहि ।।३१८।।