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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कस हंसन निज केलि से, जिनको सदा निवास । लहि सरिम समभाव से, तिनको सदा विलास १२६७। राज हंस रिषराय से, और न जानौं वीर । क्रीड़ा करें सदा तहां, जहां सहज रस नोर ।।२।। प्रबर विहंगम मारगा, हाँहि सुभाव विहंग । तेहि सुपक्षी जलधि मैं, लीला करें अभंग ॥२६६ ।। हिसा भाव नहीं जहां, है हंसन की केलि । सीत न ताप न रैनि दिन, जल निधि रस की रेलि ।।३०० ।। क्षार भाव से क्षार जल, जलधि थकी अति दूर । सो रतनागर सागरा, प्रा पानंत भरपर ।।३०१॥ नहि विभाव वितर जहां, असुभ असुर महि कोय । मायाचार न चोर छल, अनुपम सागर सोय ।।३०२।। पापाचार स्वरूप खल, परिणांमा सिंघादि । सागर तीर न पाइए, मद परिणाम गजादि ।।३०३।।
कायर चंचल भाव मय, एक ने कोई मृगादि । सागर तीर न देखिये, दोष रूप देत्यादि ।। ३०४।। लोभ लुटेरा नहिं जहां, लूटि सके महि कोय । दुखदायक दुरभाब नहि, सुखसागर है सोय ।। ३०५।। क्रीड़ा भाव सुभाव ही, क्रीड़ा नात्र अनूप । क्रीड़ा कर पयोधि में, परमातम निज रूप ।।३०६।। नाम अनंत पयोध के, महिमा अगम अपार । भाव नगर के निकट ही, भाव उदधि अविकार ।।३०७।। प्रातम भाव हि नगर है, प्रातम भाव पयोधि । प्रातम राम ही राव है, यह निज घट मैं सोधि ।।३०८।।