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विवेक बिलास
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सार भूत निज वस्तु सौ, और न नृप भंडार ।। भंडारी अस्तित्व सौ, पोर न सरदसु धार ।।३।। नहीं धनी सौं दूसरौ, सदा धनी के पामि । सब सामग्री जा कनें, महा सुग्वन की रासि ।।३।। शुध पारणामीक सा, नहीं पारषद कोय । कदे न छोड़े भृप सभा, सदा हजूरी सांय ।।४।। क्षायक सम्यक सारिखा, नहीं महाभड भाव । राज शुद्ध भावानि को कर निकंटिक राब ।।४१।। वाधा रहित स्वभाब' सौं अंग रक्ष नहिं बीर । नित्य निरंतर भाव से, मित्र न कोई धीर ।।४।। श्रेष्ठो श्रेष्ठ सुभाव सौ, नहीं दूसरों और । सोभा पुर की जा थकी, चौहट को सिर मौर ।।४३।। सर्वोत्तम निज भाव सो, नहिं सिंहासन कोइ । तापरि राज राजई, सब को नायक सोइ ।।४४।। पातप हरण स्वभाव से, छत्र न कोई जानि । निर्मल भाव तरंग से चमरन दूजे मानि ॥४५।। चेतनता निज चिह्न से, नहि निसांन परवांनि । विस्व विहारी भाव से, अस्व न और बखांनि ।।४६।। मगन महा गलतान से अति उतकिष्ट स्वभाव । तिसे न मत्त मतंगजा, धरै अतुल प्रभाव ।।४७।। रथ नहि तत्वारथ जिसे, पुरुषारथ तिन मांहि । परमारथ परिपूरणा, या संस नांहि ।।४।। अनुचर अतिसय से नही, विचरें विश्व मझारि । नहि शिवका शिव भाव सी, थिर पर सकल विहार ।।४६ ।। सुख न प्रतिन्द्रिय सारिखो, सो सुख जहां अनन्त । दुस्ल को नाम न दीसई, जहां देव भगवंत ।।५०।।