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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं ऋतित्व
भाव अनन्त चतुष्टया, तिसे न चौहट और । व्यापारीन सुभाव से, नहि पुर . में झकझोर ।।२५।। सुरु परिरणानन मारिलो, मापन है वीर । अविनश्वरता भाव सौ, धन अटूट नहि धीर ।।२६॥ गुण परणति पर्याय निज, नाना भाव सुभाव । पर जातिन सम और नहि, दंत न भाव लखाय ।।२७।। भावनि के हि प्रभाव जे, अति प्रभास मय जेहि । तिसे न परजा घर विमल, अति सुख पुरण तेहि ॥२८॥ भरचौ भाव सौ पुर महा, बस जगत के कूट । ईति भीति नहीं पुर विषै, नहीं कपट अर कूट ।।२६।। निज अवकास बराबरी, और न है दो रास । निज उद्यौत विकास सौ राज तेज नहि भास ।।३०।। सुर नर नारिक पसुनि के, सब ही रूप विरूप । विघटि जाहिं क्षण एक में, जामग मरण सरूप ।।३१।। वस्तु अरूप समान को, और न रूप अनुप । निजपुर मांहि अरुप सब, जहां न कोइक रूप ।।३२ ॥ मूरति सूरति याकै महि, जगत जीवकी कोइ । धूरत भाव धरै महा, रागादिक वसि होय ।।३३।। पातम भाव अमूरता, अदभुत सूरतिवंत । राजा परजा एक से, जहां न भेद कहत ॥३४॥ प्रातम राजा गुण प्रजा, और न राजा रति । सस्त्र न भाव प्रचंड सौ, जारि नृप की जैति ।।३५।। प्रबल स्वभाव वरावरी, कोटवाल नहि कोय । चोर न मन इन्द्रीन से, तिन को नाम न होय ।।३६।। चोरी होय न पुर विषे, जहां न कोई चोर । जोरी जारी नाहि कछु, होय न कबहूँ सोर ॥३७||