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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
नहि सरवर सुख सरसमो, सम रस पूरित नीर । ताके भेदी भव्य जन, विरला जांनी वीर ।।२४८।। नहीं वाय जग बायसी, जगत उड़ावा जोइ । बाजे अति प्रसराल सी, कंदै थिर चर लोय ।।२४६।। काय टापरी वापरी, यापै टिके न कोय । निज पद परबत प्रांसिरौ, पकरै उदर सोय ।।२५० ।। नहि कोपल सारिखी, दावानल विकराल । सर्व चराचर भस्म कर, महा तापमय ज्वाल ।।२५१।। लागि रही भव वन विष, तापें बचिवों नाहि । वुझे शांत रस नीर मैं. सो दुर्लभ पद २१ निज गुर अंबुधि मैं बसै, ताहि न याको ताप। ताः सकल विलाप तजि, सेवो आपनि पाप ।।२५३।। विध पंच इद्रीनि के, कालकूट विष तेहि । विष को मूल भयंकरा, भव कानन है एहि ।।२५४।। नहि लुटेरा काल सौ, लूटै सरवसु जोहि । संक न माने काइ की, हरै प्राण धन सोहि ।।२५५।। रागादिक रजनीचरा, विचरै प्रह निसो वीर । रौके पंचम गति पथा, करै जगत की पीर ।।२५६।। दैति सिरोमणि मोह को, राज महा विपरीत । छोटे को मोटो गिलै, वसं लोक भैभीत ॥२५७।। पर पंचक पाखंड से, और दूसरे नाहि । तिनको अति अधिकार है, मोह राज के माहि ।।२५८।। राज करै पापी जहां, दैत्यनि को सिरदार । कैसे चाल धर्म की, मारग तहां जु सार ।।२५६।। दरसन ज्ञान चरित्र से, और न निज पुर पंथ । या मारग व तत्व कौं, पावें मुनि निरगंथ ।।२६०।।