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जीबंधर स्वामि चरित
होय अमंगल नृप के सही, या माहे कछु संस नहीं ।
बाहुरि आयो मंत्री गेह, प्रात समै हो करि अति नेह ।।३२।। राज पुरोहित द्वारा काष्टांगार को भड़काना
प्रोहित स्वामी-धर्म तै गयो, ले एकांत कहत यों भयो। काष्टांगारिक सुनि मुझ वात, करि तू तुरत राव को घात ।।३३।। तेरे राज होय तहकीक, मेरौं वचन न मांनि अलीक । सुनि करि मंत्री प्रोहित वैन, कान मूदि नीचे करि नैन ।।३४।। बोल्यो जोगि नही इह रीति, तुम भाषी सो बड़ी अनीति । मैं जु करत हो वोच्छे काम, करि किरपा नरपति गुग्गधाम ।। ३५।। मो कौं अाप बराबरि कियों, अति दुर्लभ मंत्री पद दियो। तब बोल्यो प्रोहित जडमति, मेरो वचन झूट नहिं रती ।।३६।। नृप सुत करिहै तेरो अंत, तात जतन करो वुधिवंत । पैसे कहि प्रोहित घर गयो, पाप प्रभाव रोग अति भयो ।।३।। दिन तीजै नर देही त्यागि, नरकि गयो द्विज अघपथ लागि ।
ताके बचन धारि परधान, आप मरण ते डरयो प्रयांन ।।३८।। काष्टांगार द्वारा विद्रोह
नृप मारण की इच्छा धरी, धरम-करम की परिणति हरी । T सहस्र भट अपने किये, बहुत द्रव्य दे निज में लिये ।।३६ ।। घेरयो जाय राजदरबार, तब भूपति ने किये विचार । गरुड यंत्र करि रांनी कालि, लरिवा पायो आप गुणादि ।।४।। नृप दरसन करि कैयक भटा, काष्टांगारिक दल ते फटा ।
तिनकौं लारलेय नृप लरयो, भागौ मंत्री मन मैं इग्यो ।।४।। सत्यन्धर की मृत्यु
तब मंत्री सुत सेना लाय, मिल्यो तात सौ तुरतहि प्राय । पिता पुत्र दोऊ इक होय, हत्यो जुद्ध मैं भूपति सोइ ।।४२।।