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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
मरण धनी को जांनि, दुखित भई अति अनुपमा । महा रूप की संभ, पति बूडक मोह र गाई । वूडी जल मै जाम, महा मोह परभाव तें। भव भव अति दुखदाय, मोह समान न शत्रु को ॥१०३।। नगर राजपुर माहि, गंधोतफट सुभ सेठ है । जा मैं औगुन नाहि, गुन अनेक करि जी भरयो ॥१०४।। ताके गेह मझार, जनम परेबा को लढ्यो । दोऊ अति हित धार, इक नर इक नारी भई ॥१०५।। पत्रनवेग सुभ नाम, भयो कबूतर गुण मितर । रतिवेगा अभिरांम, भई परेवी अनुपमा ॥१०६।। गंधोतकट के पूत, सीखें गुरु पं अक्षरा । ए धार सव सूत, दोऊ तिन पं जाय के ॥१०॥ श्रावक व्रत्त प्रवीन, सेठ सेठनी सुभमती । जिन प्राज्ञा आधीन, तिनकौं लखिए सुरझिया ॥१०८] भये शांति मति धीर, पंधी ही के जनम मै। नदी गंग को नीर, तिसो ऊजलो मन भयो ।।१०।। अति हि परसपर नेह, धर्म सनेही अब भये । वसे सेठ के गेह, परम प्रीति के पात्र ए ॥११०।। सुवरणतेज अयांन, वैर भाव धरि जुगल सौं। मूबो थाप निधान, हूवो दुष्ट क्लिाव सो ॥१११॥ कवहुक इनको देखि, महा निरदई पाफ्धी । अपनों औसर पेखि, पकरी रतिवेग सुभा ॥११२।। ग्रसै राह ज्यों कूर, चन्द्रकला को दुष्ट धी। त्यौं विलाव अघपूर, ग्रसी कबूतर की तिया ॥११३।। तवै कबूतर जान, अति ही भिरयो विलाव तें। नख पक्षादिक घात, करिक नारि छुडाय ली ॥११४।।