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जीवंधर स्वामि चरित
उपज्यो जाती समरण यार्को, तुरत मूरछा होई 1 सीत क्रिया करि सज्जन लोकां, महा मूरछा खोई ।।१४०।। पूछचो जीवघर में कारण, मुरछा को भाई सौं । तव नंदादि पट्ट को लिखियो, भाज्यो सुखदाई साँ ।।१४।। सो गुणमित्र अनुपमा भरता, पाय कबूतर काया । भयो रावरौं ल्हौरी भाई, कुल श्रावक के आया ॥१४२।। सुनि करि खुसी भयो जीवंधर, थप्यो व्याह सुखदेवा । प्रथम हि मंगल कारण महती, रची जिनेसुर सेवा ।। १४३।। सुनौ और व्रत्तांत जु भाई, हरि विक्रम इक नामा । भीलनि को नायक नामी जो, जाके बहुत हि गामा ॥१४४।। सो भाइनि के भ ते भागौ, छांडो धरा पुरांनी । आय कपिज्य नाम वन माही, घिरता अपनी ठानी ।।१४५।। नाम दिसागिर परवत ऊपरि, मनगिर नगर वसायो । जाकं नारि सुवरी नामा, सुत वनराज कहायो ।।१४६।। हरि विक्रम के प्यारे चाकर, वट वृक्ष जु अर मित्रा। चित्रसेन फुनि सैंधव नामा, वहरि अरिजय चित्रा ।। १४७।। शत्रु मर्दनो अति बलवंता, ए छह मुखिया गनियां । अर वनराज पुत्र के दोई, सत्रा एक चित भनियां ।।१४८।। लोहजंध पर है धोषण जु, एक दिवस ए दोई । नगर सोभपुर गये देखिवा, श्रीचना तिन जोई ।।१४६।। खेलत ही उपवन के माहि, बहुत सहली संगा। लखि के याकौ रूप अनुपम, देबिनि को सौ अंगा ॥१५०।। करत प्रसंसा जात हुते ए, दाटे घोट कपाला । ते घोरनि कौं पानी पावन, आये नदी नाला ।।१५१।। दोक भोल रोस धरि मन मैं, गये प्रापनं थाने । हो वात वनराज कनारे, हरि बिक्रम नहि जाने ।।१५२।।