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महाकवि दौलत राम कागलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
राजा के हाथी का बिगड़ना
वन की क्रीड़ा करि नर नारि, पावत है सव नगर मझारि । नृप की हसती गंधमहंत, असनिवेग नामा बलवंत ।।१।। विझक्यो लोक सवद ते महा, अति ही मद करि छकि जो रहा ।
काहू 4 न निवारयो जाय, बहु प्रचंड अति दीरध काय ।।२।। सुरमंजरी को बचाना
सुरमंजरि के रथ परि गजा, दौरखो खौके संक ही भजा । जीवंधर तव आये घाय, जिनते गोपि न कोई उपाय ।।८३।। गज शिक्षा ग्रेयनि परवान, गज सौ लागे क्रीड सुजांन । करे परिभ्रम तीसर दोय, तामैं हस्ती सिथिल जु होय ।।१४। इन कौं खेद होई नहि कवै, इन ते सुर नर खग तिर दवै । बसि करि हाथी वांध्यो ठान, सांवत सकल कला के जान ।३८५।। गज ग्रयनि मैं लखि विज्ञान, करन लगे सब सुजस वखांन ।
आये कंदर अापने गेह, सुर मंजरि के उपज्यो नेह ।।६।। जीर्वधर के प्रति सुरमंजरी की आसक्ति
लखि करि जीवघर को रूप, भई कन्यका काम सुरूप । ताकी चेष्टा लखि करि जवं, मात तात ने जांनी सबै ।।७।। या पुत्री के निश्चं इहै, जीवंधर मेरो कर गहै । तब वैश्रवणवत्त करि नेह, आयो गंधोसकट के गेह ।। करी वीनती वे कर जोरि, बहुरि प्रापनौं सीस निहोरि ।।८।। सुनौं सेठपति मेरे चैन, जीघर जग की सुख दैन ।
इह तेरी सुत अद्भुत रूप, मेरै परणे अतुल अनूप ८६।। सुरमंजरी के साथ विवाह
करि तू मोहि आपनौं दास, तू किरपानिधि सुगुरण निवास । तब बोले गंधोतकट साह्, या सम और जु कौन उछाह् ॥१०