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प्रेम द्रष्टव्य नहीं होता, परन्तु वह उसके हृदय में समाहित होता है, क्योंकि वह अपने आप में अमूर्त और निराकार होता है । ____ माँ प्रेम रूपी अपरिमित एवं अथाह उमड़े हुए सागर के समान विशाल है, जिसमें हिन्द महासागर को छिपा लेने की अगम्य शक्ति निहित हैं। वह प्रेम अविभाज्य होता है। जैसे आम, दूध, इलायची, चीनी व गुलाब जल से तैयार शर्बत पीने वाला यह कदापि अनुभव नहीं कर सकता कि अब मैं आम खा रहा हूँ, चीनी फाँक रहा हूँ, दुध पी रहा ह, इलायची मुखवास से मुंह साफ कर रहा है अथवा गुलाब जल पीकर पेट को महक दे रहा हूँ। वैसे ही प्रेम है। _____टप..... 'टप'... 'टप ! यह क्या ? मुह में से पानी आ गया और नीचे गिर-गिरकर भूमि में आकर वही पानी की बूंदें उसी में ही खो गयीं। पीने की इच्छा इतनी तीव्र ! पर शर्वत का स्वाद अविभाज्य है। जब इसका स्वाद ऐसा है तो माँ के प्रेम का तो क्या कहना
माँ का प्रेम अखण्ड है ! केवल अखण्ड नहीं, अद्वितीय, आनन्दमय एवं चिन्मय भी। उसके सरस सुन्दर हृदय से जो वाणी निःसत होती है वह सरल होती है, उसमें कहीं भी छलकपट की दुर्गन्ध तक नहीं आती और भाषाशैली में होती है कोमलता, सरलता एवं अनन्यता। इसके अतिरिक्त उसका प्रेम शुद्ध, अनादि, अनन्त, अगाध गंभीर है तथा उदात्त भी। प्रत्येक जीवन में प्रेम की अनन्यता और ऋजुता अनिवार्य है। भूदान यज्ञ के जन्मदाता प्राचार्य विनोबा भावे का यह कथन आज भी साहित्य में गूंज रहा है कि "भाई बहनों को एक करने वाली कोई शक्ति है तो मातृप्रेम है ।" कोमलता में जिसका हृदय गुलाब की कलियों से भी कोमल, दयामय है । पवित्रता में जो यज्ञ के धूम के समान है, कर्तव्य में जो वज्र की भाँति कठोर है, वही विश्व जननी है । यह माँ मात्र जननी न होकर विश्व की विराट् शक्ति हैं। मेरे मस्तिष्क में इ० लेगोव का वाक्य भ्रमण कर रहा है कि 'माता ही पृथ्वी पर ऐसी भगवती हैं जिसके यहाँ कोई
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