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“पूत कपूत हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं ।"
- पुत्र में समरसता होती है। दो विपक्षी वस्तुनों में एकत्व की भावना ही समरसता है । द्वन्द्व के प्रभाव से दो विपक्षी वस्तुनों में तादात्म्य स्थापित हो जाता है । जीवन में अशान्ति का कारण समरसता का अभाव ही तो है ।
हमारे जीवन में उस विशाल हृदया के प्रति समन्वय की भावना उत्पन्न नहीं हो जाती तब तक हमें दुख- दैन्य संघर्ष आदि का सामना करना पड़ेगा । अतः उसके प्रति श्रद्धा रखो पर तमसी - राजसी नहीं, पूर्ण सात्विकी श्रद्धा । वहाँ हृदय बल अधिक और बुद्धि बल प्रल्प । संशय मत रखो । जहां संशय का आगमन हुआ वहाँ श्रद्धा टिकती नहीं । " संशायत्मा विनश्यति” अर्थात् जो संशय का पुतला है वह नष्ट हो जाता है और “यो यच्छद्धः स एव सः " ( भगवद् गीता ) जिसकी जैसी श्रद्धा उसका वैसा ही मन । यदि आपमें उसके प्रति श्रद्धा होगी तो अपना रंग जरूर दिखायेगी । इसीलिए कहा है “ श्रद्धा फलति सर्वत्र” अर्थात् श्रद्धा सर्वत्र फलित होती है ।.
यह सब पढ़कर आपको अजीब सा तो नहीं लग रहा है। कहीं मेरे शब्दों को गप्प समझकर पुस्तक से मन को हटा तो नहीं दिया । विश्वास कीजिए, आपने अभी तक जो भी पढ़ा है उसको मैंने श्र ेष्ठ आधार पर व श्रद्धा पूर्वक लिखा है ।
कोई रोगी जब चिकित्सक से इलाज करवाता है और स्वस्थ हो जाता है तो उस पर रोगी की श्रद्धा हो जाती है। हितैषी माँ पर भी बालक की अत्यन्त श्रद्धा होती है । परन्तु बड़ा होने पर उसी में श्रद्धा क्यों हो जाती है ?
समरसता के अभाव के कारण विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है । तभी तो महाकाव्य कामायनी में मनु को उपदेश सुनाया गया
है
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