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णाणं जसं च अत्थं, _ लभदि सकज्जं च साहेदि
(-भगवती आराधना, १३७६) अभिमान रहित मनुष्य जन और स्वजन सभी को प्रिय लगता है। वह ज्ञान, यश और सम्पत्ति प्राप्त करता है तथा वह प्रत्येक कार्य को सिद्ध कर सकता है । “विद्या स्तब्धस्य निष्फला” यह 'गीता' की उक्ति है कि दुराग्रही और अभिमानीकी विद्या सर्वथा फलहीनहो जाती है। इसी कारण और तो और आजकल प्रायः यह देखने में आता है कि माँ किसी को पसन्द ही नहीं। यदि पसन्द है तो पत्नी। चाहे वह अपनी हो या पराई । जिसे केवल वासना की पुतली समझते हैं। वह यह नहीं जानते कि यह किसी की माँ है या बेटी अथवा बहन । वह बंधना चाहती है प्रम के बन्धन में, जबकि आप उसे वासना की बेड़ियों में बांध रहे है। धिक्कार है ऐसे मानव के जीवन को। आप हवा के रुख को पहचानो । आप इस पर प्रहार करके सुख चाहते हैं परन्तु यह सुख का उपाय नहीं उसके जीवन को लूटने का प्रयास मत करो। यह सब आपको कटु वचन लगते हैं पर मुझे इसकी चिन्ता नहीं है । क्योंकि
"चट्टानें हिल नहीं सकती कभी अांधी के खतरों से। शोले बुझ नहीं सकते कभी शबनम की कतारों से ॥"
अब माँ से प्रेम का नाता जोड़ लो, उसके अधिकार को पहचानो उसके दुख दर्द को समझो। मानलें कि आप समय की दीवार और सद्ज्ञान की हरधारा को बदल देंगे, परन्तु दिल केवल प्रेम से ही परिवर्तन किया जा सकेगा। उससे नफरत नहीं प्रेम करो। नफरत हृदय का पागलपन है। अंग्रेज कवि लार्ड बायरन ने कहा है"Hatred is the madness of the heart" और "नफरत से नफरत समाप्त नहीं होगी उसका अन्त होगा तो सिर्फ प्रेम से। यह सदा से उसका स्वभाव रहा है।" -(गौतम बुद्ध, बौद्ध धर्म के संस्थापक)
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