Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ १०८ प्राप्ति के इतने जोर-शोर से पीछे पड़े कि माँ को दो रोटी के टुकड़े देकर स्वयं का ऋण चुकाने की आशा करने लगे । कहा जाता है कि इस जीवन में हमारे शरीर की चमड़ी से चप्पल बनाकर पहनादे तो भी अल्प है और इसी तरह से सेवा करते-करते हम सौ-सौ जन्म न्यौछावर करदें तो भी करुणा- सिन्धु माँ द्वारा किये उपकारों का ऋण चुकाने में असमर्थ ही हैं। इस पल मुझे गुजराती की एक प्रसिद्ध कहावत याद आती है "अर्पी दॐ सौ जन्म अवडु माँ तुज सम लेणु ं । परन्तु ग्राप फलासक्ति के जाल में फंसे हुए हैं। घर की वधुएँ तो समझती हैं कि चलो नौकरानी का खर्चा बच गया । परन्तु यदि माँ के मुख से विरोध के रूप में एक शब्द भी निकल जाये तो दुर्योधन, अर्जुन, भीम, कृष्ण आदि कौरव-पांडव सब इकट्ठे हो जाते हैं श्रीर महाभारत का युद्ध साक्षात् देखने को मिलता है । उनकी भावना तो यह रहती है कि रोटियों के बदले में काम करने वाली मिल गयी लेकिन यह सोचने वालों को इतना ज्ञान नहीं कि जो दूसरों के लिए बुरा सोचता है उसका खुद का बुरा होता है । क्योंकि— " कर्म प्रधान विश्व करि राखा | जो जस करहि सो तस फल चाखा ।" ( तुलसीदास ) तात्पर्य यह है कि एकान्त अनुभव करने से या वृत्तियों में शैथिल्य आने से मन में घटिया घटिया विचार डेरा डाल देते हैं । अलग होते समय माँ से हिस्से की मांग करते हैं । ऐसे व्यक्तियों को डूब कर मरने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है । माँ तो माँ ही है, जो आप माँगोगे तो वह अवश्य देगी । चाहे तन काटकर या मन मसोस कर । उसका कार्य देना है चाहे उसके प्रति कोई कैसा ही विचार रखे। इसलिए मीरांबाई ने कहा है "तेरो मरम नहीं पायो रे ।" श्राजकल समस्या ही समस्या है। सैक्स, प्रेम-विवाह, दहेज-प्रथा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128