Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 112
________________ १०१ की धारा शुष्क हो गयी है—सूख गयी है। जिससे माँ के प्रति हममें द्वेष, घृणा निन्दा, आलोचना और उसको पराया समझने का कूड़ा करकट एकत्रित हो गया है। आप भी उस अनुदया करने वाली के प्रति प्रेम की गंगा-यमुना ऐसी प्रवाहित कीजिए कि सारी गंदगी बह जाए और मन धुल कर पवित्र-निर्मल हो जाए। ____ मातृ-पितृ भक्त पुत्र श्रवण कुमार ! इसको तो हम यमुना तट पर ले जाते हैं क्योंकि वह मध्यम युग का रत्न है। इससे भी प्राचीनता की ओर अग्रसर होते हैं। जैनधर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ का शुभ नाम 'कल्प सूत्र' आदि के आधार पर मिलता है, जो विशेष उल्लेखनीय है। ऐसे पवित्र शास्त्रों में जो निर्देशित है उसका पठन-मनन और परिशीलन करना भी अपरिहार्य है। यौवनावस्था में जिसने साधना के कंटकाकीर्ण मार्ग पर एकाकी वस्त्रहीन शरीर, निद्रा-त्यागी, मौनी, प्रायः उपवासी, समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री करुणाभाव रखने का सर्वात्मा के निःश्रेयस व अभ्युदय की भावना रखना, कर्मक्षय निमित्त विविध परीषह सहन करना पड़े तो सहजता से करना और अपने प्रात्म बल व तपोबल द्वारा आन्तरिक जीवन का परिक्षालन करने का वज्र संकल्प लिया था। पर माँ का पुत्र के प्रति अत्यन्त स्नेह होने से प्रतिदिन यदा-कदा वह पौत्र भरत (पृथ्वी का प्रथम चक्रवर्ती सम्राट) को उपालम्भ देती __ अहो ! भरत ! कुमलित पुष्पों की भाँति मुझे छोड़कर और सर्व ऋद्धि का त्याग कर मेरा पुत्र एकाकी वनवासी हो गया, क्षधातृषा से पीड़ित होगा, कहीं श्मशान में या पर्वत की गुफा आदि में रहता हुया शीत-ताप, वात-वर्षा-डांस-मच्छरों इत्यादि से दुखी होगा। मैं तो दुर्मरा हूं, पुत्र का दुख जानकर भी मरती नहीं हूं मेरे समान कौन दुर्भाग्यशाली है। अहो भरत ! तू राज्य सुख में लुब्ध बन गया है। मेरे पुत्र की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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