Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 115
________________ १०४ ढाल दो जीवन में । मन ढाल दो जीवन के उपकरणों में। ठीक है। लेकिन क्यों ? क्या जीने के जीना ही बड़ी बात है ? सारा संसार अपने मतलब के लिए ही तो जी रहा है । ___ मैं इस तरह अज्ञात रही कि मेरा पुत्र ऋषभ एकाकी दुःखी होगा और इसी से सतत् भरत को उपालम्भ दिया करती थी। इस दुःख के मारे मैं अपने नेत्र खो बैठी, इस पुत्र ने मुझे कभी याद तक नहीं किया और नाहीं कोई समाचार भिजवावा कि "हे माँ ! तुम मेरी चिन्ता मत करना । मैं अत्यन्त सुखी एवं प्रसन्न हूं।" प्रत्यक्षतः यह मेरा दुख नहीं जानता तब मेरा एक पक्षीय ही प्रेम रहा। हृदय की अतल गहराई में प्रवाहमान माँ के अन्तर से ज्योति चमकी, दीपक जल उठा और अपना पालोक विकीर्ण करने लगा। अहो ! मैं तो सरागिनी हूं और यह वीतरागी है । वीतरागी निःस्नेह ही होते हैं। धिक्कार मेरी आत्मा को, धिक्कार हो ! धिक्कार । ज्ञान होने पर भी मैं न समझ सकी, निर्मोही में मोह कैसा? इस संसार में मेरा कोई नहीं है । न मैं किसी की हूं ! यह प्रात्म एकाकी और ज्ञान-दर्शन चरित्रमय शास्वती है, अवशेष सब भाव अशास्वत हैं, अनित्य हैं। ऐसा विचारती हुई बारह भावना भाती है, गुण स्थानों पर चढती हुई क्षपक श्रेणी द्वाग अन्तकृत केवली होकर मरूदेवी माँ हाथी के हौदे पर ही मोक्ष पधारी । यहाँ कवियों का कथन है कि सती न सीता सारखी, गती न मोक्ष समान । माँ न मरुदेवी सारिखी, पूत्र न ऋषभ समान ॥" ऋषभ देव के समान कोई पुत्र नहीं हुआ कि जिसने एक हजार वर्ष पर्यन्त घोर तप करके केवल ज्ञान-उपार्जन किया और सहज ही में अपनी मां को समर्पित कर दिया, न्यौछावर कर दिया। इधर मरू देवी माँ के समकक्ष कोई माँ आज तक नहीं हुई कि जिसने अपने पुत्र-रत्न को शिव नारी से शादी करने में उत्सुक जानकर उनका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128