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जब मरुदेवी के पुत्र ऋषभ को केवल ज्ञान–अंतिम ज्ञान उत्पन्न हुया और “जाण माणे पासमाणे विहरई" । विचरते हुए विनिता नगरी पधारे तो भरतजी मरुदेवी माँ के पास आकर बोले-हे माँ आप सदा मुझे ये उपालम्भ देती रहती थीं कि मेरे पुत्र की कभी सुध नहीं ली। पधारो! आज आपके पुत्र की महिमा दिखाता हूं, वे
उद्यान में पधारे हैं-ऐसा कहकर मरुदेवी माँ को गजारूढ कर स्वयं उसके पीछे बैठ कर समवसरण की ओर चल पड़े, चलते ही गए, बढ़ते ही गए।
क्योंकि माँ असंख्य दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में थी कि कब वह अपने पुत्र को नेत्र भर कर देख सकेगी। मार्ग में देवदुदभी की ध्वनि श्रवणित होने पर माँ ने भरत से पूछा-यह रसीली ध्वनि कहाँ से सुनी जाती है । "हे माँ ! आपके पुत्र के आगे बाजे बज रहे हैं"-भरत बोले। पर वह यह बात नहीं मानती, वहाँ से जरा आगे चलने पर शोर-गुल सुनाई दिया । पुनः भरत को पूछा-यह कोलाहल कैसा है ?
आपके पुत्र के रहने के लिए स्वर्ण-रत्न कमलासन कितना सुन्दर है,मैं अपनी जबान से वर्णन करने में असमर्थ हूं। जब भरत का यह कहना श्रवणित हुया तो यह सुनकर सत्य मानती हुई हर्ष से पूरित . नेत्रों को मलने लगी। जब उनकी महिमा से साक्षात्कार हुना तो देखा; देखकर विचार करने लगी, चिन्तन की गहराई में खो गयी- “ोह मोह विकलं जीवं धिकं” । मोहग्रथित जीव को धिक्कार हो ! तमाम जीव स्वार्थी होते हैं । वास्तव में जीना एक कला है तो तपस्या भी है। जीयो तो प्राण
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