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ही है, विश्वास को सूखने मत दो। भले समुद्र सूख जाये पर प्यास मत सूखने दो । उपकारों का बदला चुका, बगावत मत करो । सितारों से बगावत की तो अम्बर का क्या होगा ? लहरों ने बगावत की तो समुद्र का क्या होगा ? बेटे ने बगावत की तो बेचारी माँ का क्या होगा ? क्या इस बात पर कभी अल्पांश भी चिन्तन किया ? आज के व्यक्तियों को माँ के प्रति पुत्र-पुत्री का क्या कर्त्तव्य है उनको समझाने का प्रयास करते हैं तो उत्तर मिलता है कि अभी काफी उम्र अबशेष है, फिर कर लेंगे । पर मैं पूछता हूं कि मनुष्य को समय मिलता ही कब है और कितना है ।
"आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदद्ध गर्त, तस्यार्धस्य परस्य चद्धर्मपरं बालत्व वृद्धत्वयोः । शेषं व्याधि - बियोग दुःख सहितं सेवादिभिर्नीयते, जीवे वारितरंग चंचलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् (भर्तृहरि) की घ्राणेन्द्रिय प्रति तीव्र होती है, इसी कारण कमलमधुकर पुष्प की सुगन्ध से प्राकृष्ट होकर वह पुष्प पर जा बैठता है किन्तु उसकी महक में मस्त होकर वह विस्मृत कर देता है कि संध्या हो रही है और दिवाकरास्त के साथ ही अरविन्द फूल के पूट संकुचित होकर बन्द हो जायेंगे । ऐसा हो भी जाता है कि भंवरा कमल के संकुचित होते ही कैदी बन जाता है। वह विचार करता है"रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति
सुप्रभातम्, पंकजश्रीः । द्विरेफे,
भास्वान् उदेष्यति हसिष्यति एवं विचिन्तयति कोष
हा हन्त ! हन्त ! नलिनीं गज उज्जहार ॥
घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर पंकज-पुष्प में कैद हो जाने वाला
भ्रमर सोचता है- रात्रि व्यतीत हो जायेगी, प्रभात होगा, भानु के उदित होने पर उस समय जैसे ही कमल खिलेगा मैं श्रानन्द से बाह्य वातावरण में उड़ जाऊँगा ।
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