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नारंगी और खरबूज़ा इन दोनों को आप खाते है। खरबूजे के बाह्य पर तो फांके दिखती हैं, पर काटने पर भीतर से सम्पूर्ण एक होता है और नारंगी बिल्कुल विपरीत होती है। हमें नारंगी नहीं खरबूजे सदृश उत्तम व्यवहार बनाना चाहिए ।
अभी तक क्योंकि आपने माँ को जाना नहीं, समझा नहीं, केवल दुनिया की चिन्ता,की उसी की सार संभाल की। कभी माँ से व्यवहार पर भी विचार किया ? विचार ही नहीं करेंगे तो पायेंगे कहां से। श्रीमद् राजचन्द्र जी ने कहा-"कर विचार तो पाय ।" पाने की की योग्यता है तो अधिकार भी और साथ में तथैव संयोग भी। पर ..... विषम समस्या....'जटिल बाधकता ! जिसे आप स्वयं अच्छी तरह जानते हैं क्योंकि वह आपके हृदय की बात है। यदि मैं लिख दूंगा तो आपके मन में हलचल उत्पन्न हो जायेगी।
हलचल ही तो करना है तभी तो आपकी तुच्छ भावनाएँ बदलेंगी वैसे भी प्राप मुझे लेखनी के पैसे थोड़े ही दे रहे हैं। लेखनी मेरे पास है तो थोड़ा और विचार कर कागज-कलम युद्ध करले । अब यदि हम इतने तक ही सीमित रह जायेंगे कि यह माँ है और मैं पुत्र तो कुछ भी नहीं। सही परिचय सामीप्य से ही होगा, और उस परिचय से विश्वास पैदा होगा । तुलसीदास ने लिखा है
"जाने बिन होय न प्रतीति, बिनु प्रतीति होय नहीं प्रीति ।"
लेकिन तनाव आपने ऐसा उत्पन्न कर लिया कि सब कुछ बिगड़ गया। ध्यान रहे यदि माँ से सम्बन्ध बिगड़ गये तो रंग बिगड़ गया। ऐसा होने का क्या कारण है ?
मूलभूत कारण यही है कि मां ने हमें जितने भी अच्छे संस्कार प्रदान किए थे वर्तमान शिक्षा ने ऐसा प्रभाव डाला कि सारे संस्कारों की खिचड़ी बन गई । वर्तमान शिक्षा में सदाचार के बदले में बालक के मुखारविन्द से वचनामृत स्वरूप फिल्मी गाने और उनकी खोपड़ी
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