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में हर वक्त अभिनेता और अभिनेत्रियों के नाम भरे पड़े रहते हैं । एक दिन में इस क्षेत्र में ३५ करोड़ रुपये स्वाहा होते हैं । ब्रह्मचर्य का तो दिवाला ही निकल गया है। प्रत्येक विद्यालय चाहे वह उच्च हो या उच्चतर सभी में लैला-मजनुओं का टोला अवश्य होगा। और गुन्डा-गर्दी भी। सुना जाता है कि संसार में एक मिनट में तीन हजार गुण्डे बनते हैं। __चलचित्रों की तो ऐसी छाप बनी है कि क्या बताऊं? इसके कारण वे अपनी माँ को गली की कुतिया समझने लगे हैं। इनमें इतना कुसंस्कार आया है कि लगभग सारा विश्व घिर चुका है, डुबकियां लगा रहा हैं। बस ! मात्र यमराज तक पहुंचना बाकी है। समय के बहाव में गिरकर हरएक पदार्थ में कुछ न कुछ परिवर्तन आ ही गया है । सभ्यता के आदिम चरण में स्त्री-पुरुष स्वयं की शर्म के निवारणार्थ पेड़ों के पत्तों और छाल तथा जानवरों की खाल का भी उपयोग करते थे। धीरे-धीरे सभ्यता के विकास-काल में उन्होंने कपड़ों का पहनाव सीखा जो मूलतः शरीर को ढकने के लिए पहना जाता था किन्तु आज स्थिति बिल्कु ल परिवर्तित हो गई है। पाश्चात्य जगत् का अन्धानुकरण और फैशन का संक्रामक रोग प्रमुख्यतः नवयुवक
और नवयुवतियों में ही अधिक है। कालिजों की कुछ लड़के-लड़कियां विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में छपे चित्रों या सिनेमा जगत् के अभिनेता और अभिनेत्रियों के परिधान का अति बारीकी से अध्ययन करके वैसी ही वेश-भूषा तैयार करके और पहनकर सम-वयस्कों के प्रशंसा के पात्र बनते हैं।
स्वयं का अंग प्रदर्शित करना तो बाढ की प्रमुख नदी है। भारतीय संस्कृति का अभ्युदय कराने वाली नवयौवनाओं के आज ब्लाउज के नाम पर एक ऐसा वस्त्र-खण्ड मात्र दृष्टिगत किया जा सकता है। जिसमें से उनकी पीठ, सीना, उदर आदि अंग निर्वस्त्र होते हैं। और साड़ी का बन्धन भी ऐसा कि उनके मटकते कूल्हे, त्रिवली और नाभि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती रहती हैं। कवि बिहारी की "त्रिवली नाभि
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