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इसी परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त का अमर महाकाव्य 'साकेत' में हम 'उर्मिला' और उपेक्षिता 'कैकेयी' को निखारें तो पढ़ते-पढ़ते कैकेयी प्रभृति के अनुताप से परिष्कृत हृदय वाला पाठक द्रवित हो उठता है और वह उसके महा-अपराध को भी भूलकर कैकेयी के प्रति सहानुभूतिशील हो उठता है । क्योंकि क्षणिक परिस्थितिवश कोई भूल भले ही हो जाय पर अन्त में तो नारी माँ का रूप महनीय है"यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर तो वह नारी उर के भीतर।"
(युगवाणी) समाज के हृदय में जो युगों-युगों से घृणा और तिरस्कार का कलुश भाव प्रतिष्ठित हो चुका है उस कैकेयी के प्रति । वह पश्चात्ताप की धधकती होली में जलती हुई कैकेयी के निम्न वाक्यों के वाचन मात्र से अनायास धुल जायेगा।
युग-युग तक चलती रहे कठोर कहानी, रघुकुल में थी एक अभागी रानी।
so X X X थूके मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके, जो कोई कुछ कह सके, कहे, क्यों चूकें । छीने न मातृपद किन्तु भरत का न मुझसे, हे राम दुहाई करूं और क्या तुझ से । कहते आते थे यही सभी नर देही, माता न कुमाता, पुत्र कुपुत्र भले ही । अब कहें सभी यह हाय विरुद्ध विधाता, हे पुत्र पुत्र ही रहे कुमाता माता । बस मैंने इसका बाह्य मात्र ही देखा,
दृढ़ हृदय न देखा, मृदुल गात्र ही देखा ।। जोधपुर नरेश विजयसिंहजी ने माँ के दिल को पहचान लिया, उसके कष्टों का अनुभव कर लिया। जब उन्हीं के दरबार में आकर एक
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