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का सुसंस्कृत सामाजिक संगठन है। पारिवारिक दृष्टि मातृत्व पूज्य हैं।” यह सर्व विदित है कि सुकवि पंत को माँ का असीम प्यार नहीं मिल पाया । इसलिए प्रकृति के विशाल प्रांगण में उसे माँ की विराट उदात्त-शक्ति का सहज प्रतिफलन मिला
माँ तेरे दो श्रवण पुटों में निजक्रीडा कलरव भर दूं !
उभर अर्धखिली बाली में। बीसवीं शताब्दी के बुद्धि प्रधान-युग की अन्यतम कृति कामायनी में भी हमें माँ के वात्सल्य के छींटों की सुष्ठ व्यंजना सर्वत्र दिखाई दे ही जाती है। श्रद्धा विरह व्यथिता है। किन्तु जैसे ही वह अपने पुत्र मानव की किलकारी सुनती है तो हृदयस्थ समस्त उद्वेगजनित भावों को वह भूल जाती है । द्विगुणित उत्कंठा के साथ उठकर दौड़ती है और धूल-धूसरित बालक की बाँहें पकड़ उससे लिपट जाती है। स्वप्न-सर्ग की निम्नलिखित पंक्तियां वात्सल्य की भव्य व्यंजना करती हैं
माँ-फिर एक किलक दूरागत गूंज उठी कुटिया सूनी, माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में, लेकर उत्कंठा दूनी; लट री खुली अलक रज धूसर बाँहें आकर लिपट गई। निशा तापसी की जलने की धधक उठी बुझती धूनी ।।
कामायनी में श्री जयशंकरप्रसाद ने जो बच्चे का अनुराग सौन्दर्य तथा अनजानेपन व भोलेपन की जो अति सुन्दर ढंग से अभिव्यक्ति की तो कवि पन्त जी भी नहीं बच पाए। उन्होंने लिख भी दिया
"शैशव ही है एक स्नेह की वस्तु सरल कमनीय" ।
'मानव' पुत्र की दूरागत किलकारी सुन सारी विरह-व्यथा को भूलकर उत्सुक हो बालक को गोदी में उठाकर कहती है
"कहाँ रहा नटखट तू फिरता अब तक मेरा भाग्य बना। अरे पिता के प्रतिनिधि तू ने भी तो सुख दुःख दिया घना ॥"
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