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भग्नाशा और अतृप्ति का तीर्थ स्थल मानते हैं । जिसे 'कर्म गति' तथा 'भाग्य' जैसे सुन्दर नामों से अभिहित किया आता है ।
" वाह रे जमाना और मनखे के अकला । छालनी में दूध दूवे और दोष देवे करमला || "
सर्वोत्कृष्ट पुत्र की श्र ेणी में "श्रवण कुमार" का नाम समादर पूर्व ले सकते हैं । यदि पुत्र सुपुत्र हो तो कुल को नहीं सम्पूर्ण युग को चिरकाल तक स्मृति का प्रतीक बना देता है । जैसे आकाश में तारों के मध्य चन्द्रमा । चाणक्य का निम्न कथन भी युक्तिसंगत हैएकेनापि सुवृक्षण पुष्पितेन सुगन्धिना ।
वासितं स्याद् वनं सर्वं सुपुत्र ेण कुलं यथा
( एक भी अच्छे वृक्ष से, जिसमें सुन्दर फूल और गन्ध है सारा वन इस प्रकार सुवासित हो जाता है जैसे सुपुत्र से कुल ।
" बहुरत्ना वसुन्धरा" यद्यपि श्रवण कुमार जैसे श्रेष्ठ पुत्र रत्न वर्तमान में भी विद्यमान हैं । जिसने अपने अंधे माता-पिता को कंधे पर बहंगी (कावड़ ) में बैठाकर सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा कराकर उनकी हार्दिक अभिलाशा को पूर्ण किया । तन-मन धन से समर्पित होकर अन्तःकरण से आशीर्वाद प्राप्त किया ।
जब यात्रा करते हुए वह अयोध्या के समीप वन में पहुंचे ।
वहाँ रात्रि के समय माता-पिता को तीव्र प्यास लगी । श्रवण कुमार पानी लेने के लिए अपना तुम्बा लेकर सरयूतट पर गये ।
राजा दशरथ उस समय अकेले ही श्राखेट के लिए निकले थे ।
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