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ज्यादा है या मिर्च कम है और निःसन्तान होने पर उसे बांझ करार दे दिया जाता है | चाहे उसमें कसूर पुरुष का क्यों न हो ! ऐसी अवस्था में वह प्रतिकार स्वरूप कुछ नहीं कहती । सिवाय इसके कि वह स्वयं ही घुल- घुल कर प्राण त्याग देती है ।
हा ! अबला या अरी अनादर, अविश्वास की मारी । मर तो सकती है अभागिन, कर न सके कुछ नारी ॥ ( द्वापर ) उक्त पद मैथिलीशरण गुप्त का है । जिनके अन्तःस्थल में नारी जाति के प्रति अगाध करुणा का असीम सागर लहरा रहा है । करुणा का अजस्र स्रोत उनके सभी काव्यों में कल-कल निनाद करता हुआ प्रवाहित है मुख्य रूप से यशोधरा और साकेत में तो हो ही रहा है । नारी को मात्र छलना कहने वालों को अब नारी सहन नहीं कर सकती । अतः
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मुक्त करो नारी को चिरबंदिनी नारी को ।
युग-युग की बर्बर कारा से जननी सखी प्यारी को । (पन्त) पर परिस्थितियों ने नारी को इतना विवश कर दिया है कि वह श्राक्रोश व्यक्ति करने लगी है कि ओ ! पिता बनने बाले पुरुष ! बता क्या तुमने मेरा हाथ इसलिए पकड़ा था कि एक दिन मेरे मान सम्मान और मेरे व्यक्तित्व को अपमान पूर्ण हिचकोलों से तोड़ कर रख दोगे ? जिस नारी को आप पुरुष से बढ़कर कहा करते थे प्राज वह विलास और भोग की ही वस्तु रह गयी । पुरुष चाहे कितने ही दुष्कर्म कर ले पर वह सदैव पवित्र बना रहता है । और स्त्री पवित्र एवं महान् कृत्य करने पर भी तिरस्कृत होती है। ऐसा क्यों ? पुरुष अपने अधिकारों के मद में भूल जाता है कि पुरुष स्त्रीहेतु वरेण्य हैं तो साथ ही पिता, पुत्र और भाई भी है । उसे मात्र नग्न मूर्ति और वासना की पुतली समझना भयंकर भूल है । यदि स्त्री पत्नी या प्रेमिका है तो माँ, पुत्री और बहन के सम्बन्ध भी अपने जन्म के साथ लेकर आयी है ।
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