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है। रीतिकाल में प्राकर जो नारी मात्र विलास एवं वासना की सामग्री रह गई थी, छायावादी कविता में आकर वह गरिमा से मण्डित हो गई। प्रसाद ने कामायनी में नारी को दया, ममता बलिदान सेवा प्रादि गुणों से युक्त कहा है
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में। पीयूष स्रोत-सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।
परन्तु पुरूष जब बाह्य स्थिति का सामना करने में असमर्थ हो जाता है तो घर आकर मार-पीट करना, आक्रोश दिखाना, भोजन की थाली फेंक देना अपना जन्मसिद्ध या पुरूषोचित्त अधिकार समझते हैं किन्तु माँ सहनशीला,क्षमा की देवी और संतोष की मूर्ति होती है । वह स्वयं कष्ट महन करके भी घर की व्यवस्था करती है। संतान का पालन-पोषण करती है। ऊपर से अत्याचारों को हंसकर सहन करती हुई उन्हें सुमार्ग पर लाने का सफल प्रयत्न करती है।
भगवान महावीर ने नारी को केवल पुरुष के समकक्ष ही नहीं माना बल्कि चंदन बाला की बेडियाँ काट कर यह स्पष्ट कर दिया कि यह नारी विश्व की अमूल्य निधि है। 'यह महापुरुषों की खान है । इसकी रक्षा, आदर, सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। क्योंकि वह राष्ट्र की ऐसी अमूल्य सम्पति है जो रत्नों को उगलती है। यह गह का दीप है जो स्वयं जलकर स्निग्ध प्रकाश देती है। एक अन्य पक्ष की कहावत है कि_ "माँ आई मुट्ठी में, बाप जावे भट्टी में" यद्यपि यह कहावत भी प्रचलित है। कारण यही है कि जीवन नैया की सुकान माँ हैं, माँ रहित बालकों की स्थिति मूक प्राणियों की भांति, अबोल जीवों की तरह दया-जनक और असह्य हो उठती है। प्रमाण चाहिए ? साहित्यशास्त्र के अन्वेषण में न जाकर आप अपने घर में पास पड़ोस में भी देख सकते हैं। जैसे हमारे पैर में कांटा लगने पर, आंख में तिनका गिरने पर, दांत में फांस चिपक जाने पर वह खटकती रहती है और हमें असह्य हो जाती है। वैसे ही मॉ-विहीन जीवन असह्य लगता है
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