Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ ५८ मनुष्य को अपने जीवन मैं तब तक शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक वह स्वमानस से अविश्वास का अंकुर उखाड़ कर फेंक नहीं देगा। पुरुष चाहे कितने भी दुराचरण क्यों न करे। उसके सभी दोष क्षम्य हो जाते हैं क्योंकि वह घर का स्वामी कहा जाता है। परन्तु स्त्री निरपराध होने पर भी लांछनों से पूर्ण लांछित होती है। यह विडम्बना नही तो और क्या है ? यह मूर्ख पुरुष नहीं जानता कि वह स्वयं भी नारी की कोख से जन्म लेता है। फिर नारी के प्रति इतना घोर अविश्वास क्यों ? राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में "उपजा किन्तु अविश्वासी नर, हाय ! तुझी से नारी। जाया होकर जननी भी है, तू ही पाप पिटारी ।" (द्वापर) कितनी करुणा है नारी के जीवन में । नर को जन्म देकर भी वह स्वयं उसी नर की दृष्टि में पाप-पिटारी ही बनी रहती है । देवकी के भाई कंस ने उसको कितना उत्पीड़ित किया। एक बार नहीं बल्कि भाई होकर भी सात आठ बार उसके गर्भ को आहत करने की कुचेष्टा की। तभी तो वह चिल्ला उठती है " हा भगवान् ! हो गई व्यर्थ यह प्रसव वेदना सारी; लेकर यह अनुभूति चेतना, कहाँ रहे यह नारी।" यशोधरा काव्य में गुप्त जी ने सबल स्वर से उद्घोष किया है अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी। अांचल में है दूध और आँखों में पानी ।। जिस देश में नारी को पूज्य स्थान दिया था, वहीं अबला होकर अब वह हमारे समक्ष है । अतीत युग में पुरुष-प्रधान समाज व्यवस्था थी पर अब नारी युग का प्रारम्भीकरण हो रहा है। बच्चू ! अब अधिक टर-टर की तो नारी ‘इन्दिरा' सब ठीक कर देगी। 'तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता थी नारी की' । (जयशंकर प्रसाद) वस्तुतः जिस पुरुष ने नारी की 'सुन्दर जड़ देह मात्र' को ही प्रमुखता दी हो, वह सौंदर्य-जलधि से अमृत कैसे लेगा, उसे तो गरले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128