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करती थी। पुत्र के प्रति मोह न छोड़ सकी संसार की दृष्टि में साधु बना हुआ अर्हन्नक अभी तो उसे अपना पुत्र अर्हन्नक ही लगता था । भिक्षा से उसे वापस न लौटा जानकर साध्वी माँ के हृदय को बड़ा आघात लगा । अर्हन्नक कहां गया होगा? उसका क्या हुया होगा इन विचारों में उसे चैन न पड़ा। रात्रि बीती दूसरा दिन आया। राह देखती देखती वह थक कर चूर हो गई पर अर्हन्नक द्रष्टव्य नहीं हुअा। उसके मन की आतुरता बहुत बढ़ गई। वह गोचरी लेने गई वहाँ ताक-ताक कर यत्र तत्र सर्वत्र देखने लगी कि कहीं भी अर्हन्नक दिखाई दे ? पर अर्हन्नक नहीं दिखाई दिया।
भद्रा माँ जिसे स्वयं के पुत्र की अपरिहार्यता थी । अन्य से उसका क्या अभिप्राय । उसका तो वह जीवनलाल है, जीवन प्राण है। इन्हीं से सम्बन्धित कुछेक भाव अधोलिखित मेरी कविता "लाल-लाल'' में में संप्राप्त होते हैं
प्रातःकाल प्रज्वलित लाल,
___ लाली लहराती लैला सी लाल-लाल । पिया परदेश गमन लाल,
परिश्रमित पैदाइस परम लाल-लाल । स्वदेशागमन स्वामी लाल लाल,
सिंधु सलंध्य शुभारम्भ लाल-लाल । सलिल संस्थित शशि लाल,
शक्तिवान शिशु शीतलता लाल-लाल । मुहूर्त मंगलमय लाल,
पंचांग पावन-प्रवेश लाल-लाल । स्त्री सुहाती सल्लोक लाल,
किए अर्पित अनोखे रत्न लाल-लाल । कुशल कथन कहा लाल,
जबर जगाई ज्योति लाल-लाल ।
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