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समीपासीन याचक को यह सहन न हुआ, बोला, हे भैया ! मैंने पूर्व जन्म में अपनी माँ की सेवा नहीं की थी, विनय नहीं किया था, इसलिए मेरी ऐसी अधम याचक सी दशा हुई। मुझे कोई भी पूछने वाला नहीं, मेरी सेवा करने वाला कोई भी माई का लाल नहीं। शरीर में रक्त संचार होते
रहने से वह स्वस्थ रहता है, उसी प्रकार से इसी शरीर से माँ की सेवा होती रहे तो यह सार्थक है । मैंने सुन रखा है कि अहिंसावतार राष्ट्रपिता महात्मा मोहनदास कर्मचन्द गाँधी का कथन है कि “सेवा उसकी करो जिसे सेवा की जरूरत है। जिसे अावश्यता नहीं, को उसकी सेवा करना ढोंग है,दम्भ है।" इस अम्मा अभी तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है । सेवा करने की योग्यता रखना दण्ड नहीं, ईश्वर का आशीर्वाद है। प्रेम करने की योग्यता सब में है, किन्तु सेवा करने की शक्ति किसी किसी को ही मिलती है। महाकवि तुलसीदास ने कहा है कि “सेवा धरम कठिन जग जाना" जैसे कुदाल से खोदकर मनुष्य पाताल के जल को पाता है, वैसे ही माँ का आशीर्वाद सेवा से ही प्राप्त होता है ।
मैं तो यह सोचता था कि माँ के बिना कोई मनुष्य कैसे जी सकता है ? नाम अमृत का लेकर घूट जहर का क्या पी सकता है ? नहीं, कभी नहीं। पर मुझे समझ है कि कभी कपूत-दानव भी मानव की तुलना कर सकता है !
हमारे शरीर का वही अंग सार्थक है, जिसने माँ की सेवा की हो। मस्तक वही है, जो उभयकाल में माँ के चरणों में नमन करता है। हृदय भी वही है, जिससे माँ प्रसन्न हुई। तात्पर्य सर्वांग उसी में समर्पित रहना चाहिए। माँ की सेवा भक्ति करो, नहीं तो आपकी
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