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माँ जानती है कि मैंने प्रेमदान दिया है पर लेने वाला नहीं जानता। अहो दानम् । गुप्तदानम् ! माँ ! तेरा दान ! महादानम् ! यह जगत् को असीम स्नेह और . सौजन्य का दान देती है। और इसके समक्ष कर्ण, राजा बलि या विक्रम राजा का दान पर्वत के समीप कंकर के दान तुल्य है। "नो संचितव्यम् कदा" कदापि संचित नहीं करती बल्कि देती ही रहती है—स्व जीवन की दिव्यता । यदि नौका में पानी भर आता है तो माँझी क्या करता है ? दोनों हाथों से उलीच-उलीच कर उसे बाहर निकालता है। माँ भी अपने प्रेम-समुद्र में से दोनों हाथों से उलीच-उलीच कर वात्सल्य हम पर बरसाती है। मधुर वाणी और दान ये दोनों माँ के विशेष गुण हैं।
माता मधुवचाः सुहस्ताः (ऋग्वेद ५।४३।२) जब माँ नहीं होती तब उसकी अल्पता अवगत होती है । उसकी
उपस्थिति में प्राप्य सुख का मूल्य प्रांका जाता है। भ० महावीर का कथन है कि “दुःख सभी को अप्रिय और सुख प्रिय लगता है। जो अप्रिय है वह त्याज्य और जो प्रिय है वह ग्राहणीय, तो माँ...' अत्याज्य । एक गुजराती कवि ने ठीक ही लिखा हैगोल बिना मोलो कंसार ।
माँ बिना सूनो संसार ।। कंसार में जब तक गुड़ नहीं डाला जाये तब तक वह अस्वाद्य रहेगा और उसमें गुड़ का प्रविष्टीकरण होते ही उसका स्वाद परम हो उठता है, जिस प्रकार नवयुवती को पाकर शैतान का मन । संसार विस्तृत विशाल है पर माँ के बिना कुछ भी नहीं। उसकी
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