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रस वीर रस का स्थायी भाव उत्साह जोरशोर से तैयारी के साथ सास व बहू में उद्दीप्त हो गया है और मैं रहा राजीव गांधी; संजय ने जैसे नशाबंदी के लिए भारतीय जनता को घसीटा वैसे ही मुझे भी राजीव गांधी की तरह बीच में घसीटा जा रहा है, जब कि मैं घसीटाराम नहीं हूँ और मैं तो पूर्व से हो इतना अधिक घसीटा जा चुका हूँ कि अब और सहन करना मेरी सम्पूर्ण कायिक क्षमताओं की सीमा के बाहर की बात है । राष्ट्र की सुप्रसिद्ध सास इन्दिरा जी ने जिस समय से मेनका बहू को एक सफदरजंग से विदाई अर्पित की हैं । उसी समय से मेरे माँ के मानस में भी यही इच्छा है कि यह भी अब शीघ्र ही किसी अन्य स्थान का अन्वेषण कर ले । नित्य के नूतन हल्दीघाटी युद्धों से मेरी माँ नख-शिख तक तंग आ चुकी है |
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पत्नी देवी का “उत्तराध्ययन" कुछ विभिन्न कोटि का तथा विशिष्टता को ग्रहण किए चरम शिखर पर है । न मालूम कब से वह मेरे मायके को त्याग करने के लिए उत्सुक, बैचेन और तिलमिला रही है । पर मैं ही सास-बहू के मध्य “ब्रिज कारपोरेशन” रोल अदा करके तन-मन-वचन द्वारा दोनों में जान बूझकर झगड़ा करवा कर रोचक तमाशा देखने का शब्दातीत आनन्द ग्रहण कर रहा हूँ । क्योंकि - सासू जी ने मारी बिनणी, जबरों नाच नचावें रे यो कलियुग साफ सुणावे रे । बीकाणेरी हवा लागने सुपारी या चमके रे सासू जी तो एक सुणावे, बहू जी पांच सुणावे रे बोल्या बहू जी सुणो सास जी, "ये म्हाने नहीं सुहावे रे | भोली भोली सासू पर बहू जबरो जोर जमावे रे यो कलियुग साफ सुणावे रे | घृणा करोला बड़बड़ाट तो, भेट होस्याँ म्हें न्यारा रे । टिगट कटास्यां, इण घर सू म्हें थे बैठा तारा गिणज्यो रे चुप रेंवों थे सासू जी, नहीं तो मजा चखाऊँ रे सूधी साधी सासू जी ने बहू प्रख्या लाल बतावें रे यो कलियुग साफ सुणावे रे ।
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